डॉ योगेन्द्र
रांची से हजारीबाग के लिए मैंने बस पकड़ी तो साढ़े नौ बज रहे थे। अच्छी ख़ासी धूप थी। ठंड का नामोनिशान नहीं था, बल्कि सूरज की धूप आँखों में चुभती थी। बस के अंदर गया तो स्त्री-पुरुष के एक जोड़े में तीखी बहस हो रही थी। दोनों की बातचीत से इतना पता चल रहा था कि दोनों पति पत्नी हैं और दोनों के रिश्ते बिगड़े हैं। उनकी बहस कभी तेज होती तो कभी नरम। दोनों ही स्थिति में बहस रुक नहीं रही थी। मेरे मन में खीज सी हुई, लेकिन उसे टोका नहीं जा सकता है। ज़्यादातर भारतीय परिवारों में दुःख पसर गया है। हम इसका सामना नहीं कर पा रहे और हमारे नेता सामूहिक रूप से ‘साबरमती फ़ाइल्स‘ देख रहे हैं और समय की चुनौती से भाग रहे हैं। आँखों के सामने मणिपुर है। क्या इसकी भी कोई फ़ाइल बनेगी और सत्ताधारी कुनबा इसे देखेगा? कभी कश्मीर फ़ाइल्स तो कभी केरला फ़ाइल्स ही देश में चलेगा या जो वास्तविक तकलीफ़ है, उसका सामना करने की कोशिश भी की जाएगी?
पाखंड जब जड़ जमा लेता है, तब समाज अवरुद्ध हो जाता है। समाज का स्वभाव नदी वाला होना चाहिए। अविरल बहाव में ही उसकी सद्गति है। देश में घट रही घटनाएँ फ़िलहाल अविरल प्रवाह के लिए आश्वस्त नहीं करती। हम जीवन की धड़कती धड़कनों की रक्षा नहीं कर पा रहे और सदियों की मृत मूर्तियों के लिए धींगा मस्ती कर रहे हैं। जिनके कंधों पर देश की तमाम ज़िंदगियों की रक्षा का दायित्व है, वे ही हाथ में पलीता लिए बैठे हैं। इस धरती पर सभी को साँस लेने का हक है। चिड़िया चुनमुन से लेकर हाथी-ऊँट तक। सभी का हक है, मगर मनुष्य को लगता है कि इस धरती का वारिस सिर्फ़ वही है और मनुष्य में भी जो ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, वे मानते हैं कि मनुष्य पर शासन करने का हक़ उनका है। ऐसे लोग प्रकृति पर जीतने की कोशिश करते ही हैं, मनुष्य को भी अपने बेरहम नीतियों का शिकार बनाते हैं। पूरी दुनिया में एक दूसरे से जीतने की होड़ मची है। चाहे जो भी क़ीमत अदा करना पड़े। किसी पूँजीपति को दुनिया जीतने की होड़ है। राजनेता दूसरे देशों पर निगाह जमाए है। देश के अंदर राज्य है। राज्य को भी सीमित करने की कोशिश चल रही है। देश के सभी नागरिकों की सीमाएं तय की जा रही है। आप सभी राज्यों की रिक्तियों में आवेदन नहीं कर सकते। एक तरफ़ कहा जाता है कि पूरी दुनिया का उदारीकरण और भूमण्डलीकरण हो रहा है और हालात यह है कि व्यवहार में आप बँधते जा रहे हैं। भूमण्डलीकरण पूंजी का हो रहा है। नेट और एआई देश की सीमाओं का उल्लंघन ज़रूर करता है। मनुष्य को आज़ादी से जीने का अधिकार होना ही चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ मिलकर तमाम राष्ट्र के नेताओं को चाहिए कि नागरिकों की आवाजाही को भी स्वतंत्र करे। इतना कुछ सोचते लिखते हुए रामगढ तक आया तो पता चला कि एक बार फिर बस बदलनी है। बस बदली तो झगड़ने वाले जोड़े से मैं मुक्त हो गया था। बस पहाड़ों, नदियों, खेतों और बस्तियों को लाँघती हुई सड़क पर दौड़ रही थी।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)