वचन जाये पर प्राण न जाई

आम जीवन से राजनीति तक में वचन नहीं निभाने की परंपरा

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डॉ योगेन्द्र

आजकल किसी पर भरोसा करना मुश्किल है। कभी यह देश कहता था- प्राण जाये पर वचन न जाई। अब हालात अलग हैं। अब प्राण बचाने हैं, चाहे जैसे भी हो। प्राण अगर संकट में नहीं है, तब भी वचन पर अड़ना नहीं है। वचन तो वचन है, आता जाता रहता है। आपने पैसे भरे हैं और किसी ने आपको वचन दिया है कि अमुक तारीख़ तक काम हो जायेगा और आपने विश्वास कर लिया है, तो आपसे बड़ा बेवकूफ कोई नहीं है। मैं आजकल बेवक़ूफ़ बनता रहता हूँ और मज़े लेता हूँ। मैं तो जानता हूँ कि सामने वाला जो कह रहा है, वह काम नहीं करेगा। उसमें भी अगर प्रकाशक हो और आप उस पर विश्वास करते हैं तो वज्र मूर्ख हैं। आजकल दो तीन क़िस्म के हिन्दी प्रकाशक हैं। पहले, आपकी किताब छापेंगे, मगर इतना-इतना पैसा लगेगा। आपकी किताब को अमुक-अमुक सोशल मीडिया पर प्रसारित करेंगे। दूसरे, पैसा नहीं लेंगे, लेकिन कब छापेंगे, इसकी तारीख़ पर तारीख़ चलेगी। जैसे कोर्ट में होता है- तारीख़ पर तारीख़ आती रहती है, कोर्ट का फ़ैसला नहीं आता। तीसरे, थोड़ी काग़ज़ी कार्रवाई भी करते हैं। कहते हैं कि जितनी किताबें बिकेंगी, उसमें आपका दस या पंद्रह प्रतिशत आमदनी आपको देंगे, मगर वे कभी नहीं देते। वे आपको कभी हिसाब नहीं देते कि कितनी किताबें छापीं, कितनी बिकीं? यह कोई नवसिखुआ लेखक के साथ नहीं होता। जिसके बहुत नाम है और हिन्दी की दुनिया में सम्मान है, उनकी हालत है।
आम जीवन से राजनीति तक में वचन नहीं निभाने की परंपरा चल पड़ी है। जो वचन निभाता है, उसे जीने नहीं आया। उसके जीवन में रस नहीं है। शुष्क है। निभाता चला जा रहा है। और उनको देखिए, जो वचन नहीं निभाते। कितने रसदार हैं। गरई मछली की तरह फिसलते रहते हैं। वे अपने वचन पर कभी नहीं टिकते। पहले चुनाव में क्या कहा, दूसरे में क्या कहा और तीसरे में क्या- तीनों में कुछ भी समान नहीं होता। एक में कहा कि अच्छे दिन आयेंगे। नहीं ला सके तो दूसरे में कहा कि घर में घुस कर मारेंगे। यह नया भारत है, घर में घुस कर मारता है। तब भी सरहद पर हमारे नौजवान शहीद होते रहे तो डर दिखाने लगे कि मंगलसूत्र छीन लेगा। ग़ज़ब का यह देश है! लोग ऐसे महान शख़्सियत पर भरोसा भी करते हैं। और करें भी क्यों नहीं, वे भी तो जीवन में वही कर रहे हैं। नेता के चुनाव में हमारी ही अभिव्यक्ति होती है। हमारा व्यक्तित्व, हमारी चेतना, हमारा ही सबकुछ। हम चुनते हैं। वे राजा के बेटे नहीं हैं कि उनका मनोनयन हुआ है। वे झूठ बोलते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि झूठ में ही रस है। जनता को इस रस का स्वाद लग गया है। वह सच्चाई को वोट नहीं करेगी। उसे झूठ पसंद है। इसलिए इस लोकतंत्र को यहाँ तक लाने की ज़िम्मेदारी हमारी भी है। वचनबद्धता नहीं है और हम उनसे पूछ भी नहीं रहे कि वचन तुमने क्यों तोड़ा, तो इसका मतलब है कि गटर में हम भी हैं। आमफहम ज़िंदगी में वचन की क़ीमत घटी है। हम हम न रहे, वो वो न रहा। कभी एकाध होते थे जो वचन तोड़ते थे। अब तो एकाध हैं जो वचन निभाते हैं। अब लोग कहते हैं कि वचन देने में दरिद्र क्यों हो? ख़ूब वचन दो। अब निभाने को सर्टिफिकेट थोड़े पाना है!

 

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डॉ योगेन्द्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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