एक कवि, जिनकी कविता में ग्राम्य जीवन की संस्कृति बोलती है

गांव की परम्परा और संस्कृति बचाना एक चुनौती

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ब्रह्मानंद ठाकुर
आज का ठाकुर का कोना उस कवि पर केन्द्रित है जिनकी कविताओं में गांव की संस्कृति और प्रकृति बोलती है। स्वातंत्रोत्तोतर हिंदी कविता में जब मैं ग्रामीण जीवन, उसकी प्रकृति, परम्परा, संस्कृति और सहजता की तलाश करता हूं तो जिस रचनाकार से मेरा परिचय होता है, उनका नाम है, राम जीवन शर्मा ‘जीवन’। इनका जन्म 24 नवम्बर 1904 को मुजफ्फरपुर जिले के मड़वन गांव में एक किसान परिवार में हुआ था। उन्होंने वहां की परम्परा, रीति-रिवाज, संस्कृति और मूल्यबोध को न केवल देखा, उसे पूरी तरह भोगा भी। कुछ यही कारण है कि उनकी कविता में गांव, गांव की परम्परा और रीति-रिवाज के स्वर मुखर हैं। कवि के साथ-साथ, जीवन जी स्वतंत्रता सेनानी पत्रकार और किसान भी थे। उनके गांव में पर्यटकों को आकर्षित करने वाला पहाड़, समुद्र और जंगल का दृश्य नहीं, था तो बस बरसाती नून नदी की तन्वंगी धार जो सिर्फ बरसात में ही उफनाती थी। उसमें था कर्मी के फूल, धान, अरहर, मकई, सब्जी आदि फसलों से लहलहाते खेत। खेतों में अहर्निश पसीना बहाते किसान। वे गांव में ही रम गये। यहां की प्रकृति उनके कवि हृदय के अनुकूल जो थी! उनकी ग्राम मानव, हलवाहा, धनकटनी, ग्राम महिला, चरवाहा, बचा लें धान को, सब्जी विक्रेता, ग्राम सदन, मेरा घर, गांव की ओर आदि कविताएं भारतीय ग्रामीण जीवन के विविध आयामों को समेटे हुए है। सब्जी विक्रेता सब्जी उपजाने वाले किसान अपने माथे पर सब्जियों से भरी टोकरी लिए गांव के हाट में बेंचने जा रहे हैं। इस कविता में इस दृश्य का कवि ने बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है—
तीन बजा/ चल पड़े भगत सब पेठिया लेकर तरकारी/ लक्ष्मी, रामखेलावन, कल्लर, मीनू ,लगनू, गिरिधारी/सब के सिर पर ढकिया जिसमें/ भरा हुआ घिउरा, परवल/झिगुनी, रामतोरई भी है/ हरी-हरी, उज्ज्वल -उज्जवल/चठईल किसी किसी को थोड़ा/उसका मौसम गया निकल।
कवि ने देखा है, अपने गांव केकी खेती कर अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं। कभी भी वे आपस में लड़ते-झगडते नही। किसी कारणवश यदि सुबह में झगड़ा हो भी गया तो शाम में सुलह हो ही जाना है। वे एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या -द्वेष नहीं रखते। यह थी हमारे गांव की पहचान! अपनी कविता ‘गांव की गोद में ”कवि कहता है, मानव, फिर प्रकृति की गोद में चल/ सुख-शांति वहीं तू पाएगा/ मिट जाएंगे दुख दोष सकल। शहर का जीवन तो कुत्सित और कृत्रिम है। कितना कुत्सित, कितना कृत्रिम/कितना कठोर यह कोलाहल/ जितनी जल्दी हो सके पथिक/इन शहरों से चल भाग निकले/ मानव फिर प्रकृति की गोद में चल। सच में आज गांव-गांव की परम्परा और संस्कृति बचाना एक चुनौती है।

 

The poem speaks of the culture of village life
ब्रह्मानंद ठाकुर
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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