दुखवा का से कहूं

किसानों की दर्दनाक आपबीती

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ब्रह्मानंद ठाकुर
हमारे गांव के धरीक्षण अब सीमांत किसान हो गये हैं। पहले नहीं थे। बाप-दादों ने कुछ जमीन खरीदी थी। तब संयुक्त परिवार था और वे 5 एकड़ जमीन के मालिक थे। परिवार में बंटवारा होने के कारण जोत का रकबा घटता गया और अब वे छोटे से सीमांत किसान की श्रेणी में आ गये हैं। इतनी जमीन वालों को सरकारी मापदंड के मुताबिक सीमांत किसान कहा जाता है। सरकार ने जोत के हिसाब से किसानों की 5 श्रेणियां निर्धारित की हुई हैं। ढाई एकड़ से कम जोत वाले को सीमांत, ढाई से 5 एकड़ जोत वाले को लघु, 5 से 10 एकड़ वाले अर्ध मध्यम, 10 से 25 एकड़ वाले को मध्यम और 25 एकड़ से अधिक जोत वाले किसान को बड़े किसानों की श्रेणी में रखा गया है। देश के लगभग 82 प्रतिशत किसान लघु और सीमांत किसान हैं। अपनी जीविका के लिए ऐसे किसान सिर्फ खेती और पशुपालन पर निर्भर हैं। धरीक्षण ऐसे ही किसानों के प्रतीक हैं।
इनके बहाने आज के ठाकुर का कोना में मै जो बताने जा रहा हूं, वह धरीक्षण जैसे तमाम लघु और सीमांत किसानो की दर्दनाक आपबीती है। किसान हैं तो एक मर्यादा बोध भी है। मजदूरी कर नहीं सकते लिहाजा लीज पर जमीन लेकर अपनी मर्यादा बचाने की असफल कोशिश कर रहे हैं। गांव के जो मध्यम और बड़े किसान हैं, अधिकांश ने खुद से खेती करना छोड़ दिया है। अपनी जमीन इन लोगों ने ऐसे ही सीमांत, लघु और भूमिहीन किसानों को सालाना ठीके पर दिया हुआ है। तीन दशक पहले तक बटाई का प्रचलन था। वह अब खत्म हो गया है। जो किसान खुद से खेती नहीं करते हैं वे 12 से 15 क्विंटल प्रति एकड अनाज या 20 से 30 हजार रूपए प्रति एकड़ सालाना नगद की दर से खेती के लिए लीज पर जमीन दिए हुए हैं। अब तो कुछ लघु और सीमांत किसान भी खेती के अलाभकर हो जाने के कारण अपनी जमीन लीज पर देकर महानगरों में नौकरी या मजदूरी करने चले गए हैं। धरीक्षण भी अपने गांव के एक मध्यम किसान से जमीन लीज पर लेकर काफी समय से खेती करते आ रहे हैं। एक दिन अचानक मिल गये तो बताने लगे, जमीन मालिक ने एक बीघे जमीन का रेट बढ़ा कर 20 से 24 हजार कर दिया है। रकबा भी दो कठ्ठा कम है। इस सीजन में सारा धान बेंच कर भी उनका पूरा रेंट जब चुका नहीं पाया तो हाथ -हाथफेर करना पड़ा। अब रबी सीजन का ही आसरा बचा है।
धरीक्षण उस पीढ़ी के आखिरी किसान हैं, जो उत्तम खेती, मध्यम वान /निर्घिन सेवा, भीख निदान की कहावत को आज भी जीवन का मूल मंत्र बनाए हुए हैं। इन जैसे किसानों का दर्द इतना ही नहीं है। बाढ और सुखाड़ से जब पूरी फसल मारी जाती है तब भी उनसे जमीन का रेंट वसूला जाता है। अगर तनिक भी आनाकानी की तो दूसरा कोई धरीक्षण जमीन जोतने के लिए तैयार। धरीक्षण करें भी तो क्या? जीने का दूसरा कोई चारा भी तो नहीं है! इतना ही नहीं, प्राकृतिक आपदाओं में फसल नष्ट होने पर सरकार से यदा कदा फसल क्षति का जो मुआवजा मिलता है, उस मुआवजे से भी इन धरीक्षण जैसों को वंचित रहना पड़ता है। ऐसा इसलिए कि फसल क्षति का दावा करने के लिए जमीन सम्बंधी जिस दस्तावेज की जरूरत होती है, वह उनके पास नहीं होता। ऐसी स्थिति में वही जमीन मालिक, जो खुद खेती नहीं करता, फसल क्षति का सरकारी अनुदान भी हड़प लेता है। इनके दोनों हाथ में लड्डू है। आजादी के बाद कहने को भले ही जमींदारी प्रथा का अंत हो गया लेकिन अपने बदले स्वरूप में वह आज भी कायम है। सोचनीय सह भी कि ऐसे किसानों के हित में घड़ियाली आंसू बहाने वाले वाम दलों ने भी इनकी पीड़ा को आवाज देने की कभी कोशिश नहीं की।

 

The pain of farmers
ब्रह्मानंद ठाकुर

 

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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