चिंताजनक है छात्रों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति

आत्महत्या की घटनाओं ने आज विकराल रूप ले लिया

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ब्रह्मानंद ठाकुर
अपने देश में छात्र -युवाओं में आत्महत्या की लगातार बढ़ रही प्रवृति चिंता जनक है। जिन छात्र -युवाओं पर देश के नव निर्माण का गुरुतर दायित्व है, वे ही यदि अपने जीवन से निराश हो कर मौत को गले लगाने लगे तो स्थित वाकई भयावह हो जाती है। खबर है कि अपने देश में हर 40 मिनट पर एक छात्र आत्महत्या करता है। हर दिन 35 छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। यह खुलासा स्टुडेंट सुसाइड एन एपिडेमिक स्वीपिंग इंडिया की रिपोर्ट में किया गया है।
बीते 25 दिसम्बर को पटना के हुनुमान नगर में बीपीएससी की तैयारी कर रहा एक छात्र सोनू कुमार ने आत्महत्या कर ली। कहा जाता है कि वह काफी समय से परीक्षा के दबाव में था। इसी दिन इसी शहर के राहुल कुमार ने शेयर बाजार में घाटे के कारण आत्महत्या कर ली। इससे एक दिन पहले आईजीआईएमएस के पीजी के छात्र आर्यन ने आत्महत्या कर ली। आंकड़े बताते हैं कि 2021-22 के बीच भारत में छात्रों की आत्महत्या की दर में 4.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। आत्महत्या की घटनाओं ने आज विकराल रूप ले लिया है। सरकार भी यह मानती है। लेकिन इस समस्या के कारणों की जांच और निदान का कोई ठोस उपाय हमारे नीति निर्माताओं द्वारा अब तक नहीं किए गये हैं।
2009 की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस तर्क के साथ कक्षा 8 तक पास-फेल प्रणाली को समाप्त कर दिया गया था कि परीक्षा में फेल होने के डर से मानसिक दबाव के कारण छात्रों में आत्महत्या की प्रवृति बढ़ती है। हालांकि अब केन्द्र सरकार ने पास-फेल प्रणाली फिर से लागू कर दिया है। आज बड़ी संख्या में उच्च मध्यम वर्ग के छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। इनमें से अधिकांश छात्र निजी शिक्षण संस्थानों में पढ़ते हैं। वहां उनके अभिभावकों कों फीस के रूप में भारी भरकम राशि अदा करनी पड़ती है। अभिभावक जब अपने बच्चों की शिक्षा पर भारी भरकम राशि खर्च करते हैं तो छात्रो पर भी परीक्षा में सफलता प्राप्त करने का घोषित,अघोषित दबाव बना रहता है। ताकि परीक्षा पास कर वे अच्छी नौकरी कर सकें जिससे उनकी शिक्षा पर किया गया खर्च सूद समेत वसूला जा सके। एक तरह से छात्रों पर उनके अभिभावकों द्वारा अपनी शिक्षा पर लागत पूंजी वसूलने के लिए परीक्षा में सफल होकर नौकरी पाने का दबाव पड़ने लगता है। संकटग्रस्त पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में नौकरी पाना बड़ा मुश्किल होता है। गलाकाट प्रतिस्पर्धा, सामाजिक अलगाव के चलते छात्र मानसिक तनाव में आ जाते हैं। ऐसे में किसी भी तरह का नैतिक और भावनात्मक सहारा उनको नहीं मिल पाता। वे किसी से अपनी पीड़ा का इजहार भी नहीं कर पाते। यह स्थिति डिप्रेशन का कारण बन जाती है और वे आत्महत्या को मजबूर हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में हर मां -बाप और अभिभावक का यह दायित्व हो जाता है कि वे अपने बच्चों पर अत्यधिक धनोपार्जन करने वाला कैरियर बनाने का दबाव डालने के बजाय उसे अपनी प्रवृति के अनुरूप आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें।

 

The increasing trend of suicide among students is a matter of concern
ब्रह्मानंद ठाकुर

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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