डॉ योगेन्द्र
सुबह पूरे आसमान में बादल छाये थे। शायद ‘दाना तूफान‘ का असर था। हल्की-हल्की बूंदें भी गिरने लगीं। मुझे टहलने तो जाना था। जैसे डाकिया रोज डाक लाता था। चाहे गर्मी हो या हो बारिश। मैं वर्षों से डाकिया ही हूं। चाहे कुछ भी हो, टहलने जरूर जाता हूं। आज भी छाता उठाया और चल पड़ा। लगभग बीस मिनट चलने के बाद हवाई अड्डा आता है। सड़क पर पानी, कीचड़ और भारी भरकम ट्रकें। धीरे-धीरे बारिश तेज होने लगी। तेज बारिश में छाता सिर्फ सिर बचा सकता है। मैंने वही किया। पैजामे और कुरते का नीचे का हिस्सा भींगता रहा। मैं हवाई अड्डे के गेट पर पहुंचा तो वहां कोई न था। जबकि हर सुबह दो तीन सौ व्यक्ति वहां जरूर रहते हैं। कोई हांफते हुए, कोई गोल चक्कर लगाते हुए, कोई योग करते हुए, कोई हंसते हुए। हवाई पट्टी पर कम से कम पांच छह कारें जरूर चल रही होती हैं। आज मात्र एक कार थी। हवाई पट्टी एकदम सूनी थी। हवाई अड्डे में कई हत्याएं भी हुई हैं। यह भी हुआ है कि किसी को कहीं मारा और लाश हवाई अड्डे में फेंक दी। मैं जब हवाई पट्टी पर चला तो पूरबा हवा काफी तेज थी और बारिश की बूंदें लगातार घनी हो रही थी। कंधे पर छाते की डंडी थी। हवा के दबाव से मैं तेज चलने को मजबूर था। एक तरह से हवा मुझे ठेलती जा रही थी। हवाई पट्टी काफी लंबी है और आने जाने में बीस-पच्चीस मिनट लगता है। इधर से तो हवा दौड़ाती हुई ले गयी। वापसी में हवा से मल्ल युद्ध करते आना था। मैंने आसमान की ओर देखा। बारिश है और छोटी-छोटी पंद्रह बीस चिड़िया हवा में अठखेलियां कर रहीं थीं। मेरे अंदर चिड़िया बनने की अनंत इच्छाएं जग गई। वर्षा, हवा और चिड़िया। आसमान कहीं से दिख नहीं रहा था। लौटते हुए हवा मेरे छाते को मरोड़ देना चाहती थी, लेकिन छाता भी कम नहीं था। वह हवा से टकराता मेरे सिर की रक्षा कर रहा था।
जैसे तेज हवा में कोई दीपक की लौ संघर्ष करती है, कुछ-कुछ मेरा छाता भी। दीपक जैसे मन में आया कि दीपक संबंधी कल की एक खबर याद आयी। खबर थी -बाबा के दरबार मे दीया जलाने के लिए देने होंगे पैसे। खबर कुछ ऐसी लिखी थी – “राम राज्य मे बाबा का धाम “मंदिर” व्यवसायिक केंद्र के रूप मे तब्दील हो गया है। पहले दर्शन के लिए मंदिर शुल्क की व्यवस्था बनायी गयी। अब देव दीपावली पर मंदिर परिसर में ‘पितरों’ के नाम से दीये जलाने के लिए भी मंदिर शुल्क लगेगा। मंदिर के गेट नंबर 4 से गंगा द्वार और ललिता घाट तक पूर्वजों की याद में दीये जलाने की व्यवस्था की गई है। इसके लिए चार श्रेणियों में 1100 से 11000 रुपये तक मंदिर शुल्क जमा कराए जा रहे हैं। इस व्यवस्था के तहत कम से कम 5 और अधिकतम 51 दीये जलाए/जलवाए जा सकते हैं। प्रसाद के लिए 350 रुपये शुल्क अलग से देना होगा।” मंदिरों में यों भी स्वेच्छा से लोग दान करते रहते हैं, मगर अब तो हर मंदिर व्यवसाय है। यह व्यवसाय मंदिरों पर मेरी आस्था को और खंडित करता है। ईश्वर अगर कुछ लोगों के व्यवसाय में इस्तेमाल हो रहे हैं और व्यवसायी में वैसे भी दया माया कम ही होती है। पितरों के लिए दीपक जलाने से कुछ होता है या नहीं होता है, लेकिन व्यवसायी काले धन से मालामाल जरूर होते हैं। सच पूछिए तो यह आस्था के साथ खिलवाड़ ही है। बारिश, बूंदें, आकाश और आध्यात्मिक मन के बीच इस व्यवसाय की याद ने मेरी सुबह बिगाड़ दी। मैं तो मौसम के ठंडे पन का लुत्फ ले रहा था, लेकिन चंचल मन एक स्थल पर ठहरता कहां है?
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