जब स्वामी सहजानंद सरस्वती ने गांधी जी की बोलती बंद कर दी थी
स्वामी सहजानंद आर्यों-अनार्यों, व्रात्यों-ब्रह्मर्षियों की समन्वित परम्परा की प्रतिमूर्ति थे
ब्रह्मानंद ठाकुर
देश में आजादी आंदोलन चरम पर था। महात्मा गांधी कांग्रेस के मशहूर नेता मौलाना मजहरुल हक के पटना आवास पर ठहरे हुए थे। इसी दौरान एक दिन स्वामी सहजानंद सरस्वती गांधी जी से मिलने मौलाना मजहरुल हक के आवास पर पहुंचे। दोनों के बीच मुलाकात हुई। स्वामी जी ने महात्मा गांधी से पूछा, आजादी के बाद जमींदारों और पूंजीपति वर्ग के हाथों सत्ता आने के जो आसार दिख रहे हैं, उसे रोकने के लिए उनके पास क्या उपाय है? गांधी जी तब उनके इस प्रश्न से निरुत्तर रह गये थे।
उसके बाद स्वामी जी ने कांग्रेस से नाता तोड़ दिया और वे स्वाधीनता संग्राम के समझौता विरोधी धारा के नायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ हो गये। इसके बाद से ही वे किसान-मजदूरों का राज कायम करने के लिए आजीवन संघर्षरत रहे। वे न सिर्फ जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ते रहे बल्कि जब कभी मौका मिला, ब्रह्मर्षियों की सभा में, उनकी मौजूदगी में शोषित-पीड़ित खेत-मजदूरों को सचेत करने की खातिर पूछते थे कि बताओ, ये जमींदार क्या तुम्हारे साथ बैठ कर भोज खा सकते हैं? क्या ये तुम्हारा जूठा पत्ता फेंक सकते हैं? क्या तुम्हारे मुर्दे को उठाने में अपना कंधा लगा सकते हैं? क्या तुम्हारे साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध बना सकते हैं?
आजादी के बाद स्वामी जी गांधी और जयप्रकाश की तरह सत्ता से अलग रहते हुए किसान-मजदूरों का राज स्थापित करने के लिए अपना स्वर मुखर करते रहे। उनका कहना था कि स्वदेशी सरकार किसानों से लगान की एक कौड़ी भी न ले और उन्हें खाद, बीज, सिंचाई और कृषि यंत्र मुहैय्या करें। आजादी आंदोलन का उद्देश्य था आजादी के बाद देश में शोषणमुक्त, वर्ग विहीन समाज की स्थापना और इसे साकार करने के लिए वे संघर्ष कर रहे थे। स्वामी जी आर्यों-अनार्यों, व्रात्यों-ब्रह्मर्षियों की समन्वित परम्परा की प्रतिमूर्ति थे। उनके सिरहाने-पैताने गीता और कार्ल मार्क्स का दास कैपिटल साथ-साथ रहता था। वे आजीवन सन्यस्त रहे। उन्होंने हाथ में दंड और डमरू धारण कर लोगों को यह बताया कि वे न सिर्फ आर्यों के देवता शंकर की नाश और निर्माणकारी प्रतिभा के पूंजीभूत प्रतिमूर्ति हैं बल्कि दंडी स्वामी के रूप में किसान-मजदूरों के भविष्य के लिए आलोक पूंज भी हैं। उन्होंने सन्यस्त जीवन जी कर संन्यास को पुनर्परिभाषित किया और बताया कि जब जन-गण पर अन्याय, अत्याचार, शोषण-उत्पीड़न ढाया जा रहा हो तब संन्यासी का दायित्व कैलाश पर्वत पर या गुफा-कंदरा, जंगलों में रहकर शंकर की तरह तांडव नृत्य यानि संघर्ष का नेतृत्व करना होता है। आजादी के बाद सत्ताधारियों ने आजादी आंदोलन के सपने को चूर-चूर कर दिया और करते ही जा रहे हैं। आज नीचे से ऊपर तक सम्पूर्ण जनतंत्र को अपराध और भ्रष्ट तंत्र में तब्दील कर दिया गया है। वाकई, यह स्थित सिर्फ सोंचने और लिखने की नहीं, इससे मुक्ति के लिए कुछ सार्थक करने की है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)