डॉ योगेन्द्र
मुफ्तखोरी से आदमी का स्वाभिमान नष्ट होता है। किसी को अन्न नहीं है तो तात्कालिक खाना दो। सबकुछ स्थायी न बना दो कि वह काम करने लायक न रहे। शरीर के जिस अंग को चलाना बंद कर दें तो वह अंग निष्प्राण और बेकार हो जाता है। एक अच्छी सरकार मर्यादा निभाती है, उसका उल्लंघन नहीं करती। सरकार का दायित्व है कि वह जनता के स्वाभिमान को बनाये रखे। लेकिन आज कल हर दल को मुफ्त में देना है। मुफ्तखोरी वोट प्राप्त करने का माध्यम है। यह शुद्ध, सरकारी और संगठित घुसखोरी है। हम काम नहीं दे रहे। जीएसटी के माध्यम से भिखारियों तक से पैसे वसूल रहे। जिस जनता का दोहन करते हैं, उसी जनता को फिर मरहम लगाते हैं। देश को विज्ञान, तकनीक, कला, साहित्य और दर्शन से समृद्ध नहीं करेंगे, बल्कि उसके आत्मविश्वास को छलनी कर देंगे। आत्मविश्वास हीन व्यक्ति देश में कुछ नहीं कर सकता। देश को चाहिए नये सपने, विचार और उसके कार्यान्वयन। इसकी तैयारी की जानी है, वरना झूठ हमारी चेतना को बर्बाद कर देगा।
दिल्ली के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि मंत्रिमंडल की पहली बैठक में महिलाओं को 2500 रुपये दिए जाएँगे। अब मुख्यमंत्री कह रही है कि आम आदमी पार्टी ने खजाना खाली कर दिया है। मतलब समझिए। देश के प्रधानमंत्री को अंदाजा नहीं है कि वे जो कह रहे हैं, उसे पूरा कैसे करेंगे? इसी तरह के उलजलूल वादे उन्होंने किए और वे पूरे नहीं हुए। उन्होंने देश की जनता से माफी भी नहीं माँगी और दूसरे वादे करने लगे। भागलपुर हवाई अड्डे में प्रधानमंत्री के लिए जो आयोजन था, वह निर्धन देश के लिए कलंक ही है। किसानों के सम्मान के लिए यह आयोजन था। सम्मान में छह हजार रुपये खाते में जाना था। यह काम दिल्ली से भी कर सकते थे या स्थानीय सरकारों के हवाले कर देते। लेकिन उन्हें तो यह साबित करना था कि एक अकेला उद्धारक वे ही हैं। वे कृपा बरसा रहे हैं। उनकी नीतियों से ही किसान तबाह है। खेतीबाड़ी में किसानों के पास क्या बचा है? उसके नियंत्रण में कुछ नहीं है- न बीज, न खाद, न कीटनाशक। यहाँ तक कि अपनी जमीन के प्रति भी उसका विश्वास हिल गया है। खेती देश की रीढ़ थी जो तोड़ दी गई है। चतुर्दिक पूँजीपतियों की लूट है। बीज है तो टर्मिनेटर। हर वर्ष खरीदना है। पहले बीज किसानों के पास होता था, अब पूँजीपतियों के पास है। मनमानी कीमत वसूले जाते हैं। वैसे पहले भांसा- गनौरा, गोबर और प्राकृतिक खाद के आधार पर खेती होती थी। अब रासायनिक खाद के बूते। बीज ही ऐसे स्वभाव का है, उसमें पानी, खाद, कीटनाशक निर्धारित है। नतीजा है कि खेती गुलाम होती गई। उनकी फसलों के दाम भी सही से नहीं मिलते। फलतः किसान कंगाल होते गए। बाजार में कल कारखानों से उत्पादित माल महंगे और मनमानी कीमत पर बेचे जा रहे हैं और खेती की फसलों की कीमत किसान तय नहीं कर पा रहे। प्रधानमंत्री को सिर्फ वोट चाहिए, चाहे वह जैसे मिले। अगर देश सुधारने की थोड़ी भी चाहत होती तो खेती को उन्नत करते, न कि पूँजीपतियों की संपदा बढ़ाने में लगे रहते।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)