डॉ योगेन्द्र
नोयडा में हूँ छठी मंजिला फ्लैट में बैठा हुआ। पवेलियन हाईट्स नामक अपार्टमेंट में है जो 18 मंजिला है। पर्दा हटा कर नीचे की ओर देखता हूँ कुहरे में डुबी हुई सुबह है। बालकनी में जो पौधे रखे हैं, उसकी पत्तियाँ हवा से हिल रहीं हैं। ठंड तो बाकायदा है। रांची से कहीं ज्यादा। कल जब अलवर के लिए दिल्ली से चला था तो यह सोच कर गया था कि दो दिन अलवर का ही मेहमान रहूँगा। अरावली की पहाड़ियों के मध्य रहूँगा और रजवाड़ों के खंडहरों और अन्य ऐतिहासिक स्थलों को देखूँगा। मगर यह संभव नहीं हुआ। भरत परिवार का एक सम्मेलन था। स्थानीय और कई राज्यों के लोग आये थे। युवा और युवतियाँ भी। बड़े-बुजुर्ग तो थे ही। बहस भी अच्छी चल रही थी, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन ढलने लगा, ठंड बढ़ती चली गई और देह पर जो कपड़े थे, उसे छेदती ह्रदय तक पहुँचने लगी। रहने का इंतजाम ठीक न था, इसलिए लौटना ही श्रेयस्कर लगा। यों जिसने सम्मेलन का आयोजन किया था, उसने भरसक कोशिश की कि आनेवाले अतिथियों को कोई दिक्कत न हो। लेकिन मौसम बेहद खराब था। सूर्य का कहीं दरेस नहीं था।
सुबह कंपकंपाती ठंड में कार पर सवार होकर हमलोगों ने जब राजस्थान में प्रवेश किया तो बार-बार सरसों के फूल ध्यान खींचते थे और बबूल की तरह ही बहुतायत से टिकर के पेड़ दिखते हैं। मैंने आम और कटहल के पौधे ढूँढने की कोशिश की तो वे सिर्फ एक जगह दिखे।
सम्मेलन में डॉ भरत लाल मीणा की पुस्तक ‘घुमंतू सांसी जाति’ का विमोचन हुआ। किताब लोभी तो हूँ ही। मंच पर रहने का फायदा हुआ कि किताब मिल गई। सांसी जाति घुमंतू जाति है और रोजी रोजगार नहीं मिलने के कारण वह अपराध में प्रवृत्त होती गयी और उसने अपराध को ही पेशा बना लिया। अंग्रेजों ने इसे ‘अपराधी जनजाति अधिनियम‘ के तहत चिह्नित कर हर दिन पुलिस के समक्ष हाजिरी देने और दिन भर की गतिविधियों का लेखा जोखा देना अनिवार्य कर दिया था। यह किताब 194 पृष्ठों की हार्डबांड में है। भरत लाल मीणा स्थानीय कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। सांसी घुमंतू जाति की दुर्दशा को यह किताब न केवल रेखांकित किया है, बल्कि उसके उत्थान के भी रास्ते सुझाती है। लोकतंत्र के पचहत्तर वर्ष के बाद भी उसके जीवन में बहुत कुछ नहीं बदला। जीविका के लिए उसने अपराध का रास्ता पकड़ा। मजबूरी थी, लेकिन आज बहुत से लोग हैं जो अच्छे खासे खाते-पीते हैं। जिनके घर हर दिन दिवाली और होली है, वे भी लूट रहे हैं। नोटों से घर भरते-भरते बेदम हैं। वह तो अच्छा है कि मरने के बाद वे एक धेला भी नहीं ले जा सकते। अगर संभव होता तो भारत देश खाली हो गया होता। दिल्ली तो देश की महारानी है। कल दिन भर बदहवास रही। सत्ता में बैठे लोगों के ह्रदय का संकुचन हो गया है, इसलिए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ न्याय नहीं कर सके। उनका दाह संस्कार निगम बोध में हुआ। कम से कम अब जो भी पूर्व प्रधानमंत्री गुजरें, उनका दाह संस्कार भी निगम बोध पर हीं हो। दिल्ली में कंपकंपाती ठंड ही नहीं है, बल्कि कंपकंपाता मन भी है। दिल्ली को उदार होना चाहिए।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)