सत्यार्थ यात्रा: पहला पड़ाव बालासोर
अनुभव और अनुमान के इस अनंत यात्रा के सफर की शुरुआत
जहाँ से किसी सफर की शुरुआत होती है, वहाँ एक सपना बसता है। जहाँ सफ़र समाप्त होता है, वहाँ मंजिल नहीं, एक घर होता है। मंजिल अंत नहीं, एक पड़ाव मात्र है। कल जब एक सफर नया शुरू होगा, तब मंजिल नहीं, एक नया पड़ाव निर्धारित होगा। सफर का अंत घर पर ही संभव है। वैसे तो यह साहित्यिक और दार्शनिक सफर ना जन्म से शुरू, ना मृत्यु पर समाप्त होता है। काल की यात्रा अगर शारीरिक सफर के साथ संपन्न हो जाती, तो ना हमारे पास साहित्य होता, ना ही कोई इतिहास। जिसे आधार बनाकर हम एक देश की कामना करते हैं, राष्ट्र और राज्य की बातें करते हैं। किसी भी राष्ट्र की कल्पना में उसका भूगोल मात्र नहीं होता, सीमायें ही नहीं होती हैं। एक समाज होता है, जो ना जाने कितने व्यक्तियों को जोड़कर अर्थ का निर्माण करने की राजनीति से गुजरता एक इतिहास हर वर्तमान में साहित्य के माध्यम से रचता है। देश एक वैचारिक अवधारणा है। सीमायें इंसानों द्वारा निर्धारित की गई हैं। व्यक्तिगत सीमाओं का विस्तार ही समाज को आकार देता है। व्यक्तिगत सीमा का निर्धारण ज्ञान या अज्ञानता पर निर्भर करता है। ज्ञान और अज्ञानता के बीच बस अभाव का अंतर है। एक का प्रभाव या अभाव ही दूसरे अस्तित्व का निर्धारण करता है। अद्वैतवाद की अवधारणा इसी तथ्य पर टिकी है। बहुआयामी दुनिया की विभिन्नता में सौन्दर्य का दर्शन यहीं संभव है।
दुनिया के लगभग सभी दार्शनिक पंथों में सत्य की सामान्य समझ इस ओर इशारा करती है कि सत्य अखंडित है। मगर ज्ञान और विज्ञान तो खंडन से ही संभव है। ऐसी दशा में क्या सत्य का ज्ञान संभव है? संभवतः नहीं! पर, उसका अनुमान संभव है, और दर्शन भी। प्रत्यक्ष ज्ञान हमें विविधता में जिज्ञासा तलाशने को प्रेरित करता आया है।
अनुभव और अनुमान के इस अनंत यात्रा के सफर की शुरुआत 13 अक्टूबर, 2024 को रांची से हुई। सुकांत ने गूगल की मदद से बालासोर को अपना पहला पड़ाव बनाया, सारथी बन निकल पड़ा। साथ में उसकी पत्नी अनिशा थी। अपनी पाँच साल की बेटी, आर्ची को उसने दादा-दादी के साथ छोड़ने का निर्णय बहुत सोच-समझकर लिया। बचपन से ही आर्ची अपने दादा-दादी के साथ रही है। वैसे तो सुकांत अकेला ही इस यात्रा पर जाना चाहता था। पर, आधा-अधूरा वह कैसे जाता? यह सोचकर उसने एक माँ को उसकी बेटी से दूर रखने का साहस जुटाया, और अपनी अर्धांगिनी को लेकर वह “सत्यार्थ यात्रा” पर निकल पड़ा। यह उसकी पहली सड़क यात्रा नहीं थी। इसके पहले भी उसने अकेले हिमाचल स्थित धर्मशाला की यात्रा की है। तब वह अविवाहित था, ख़ुद में अधूरा और ख़ुद से पूरा भी था। सनातन दर्शन के सांख्य पंथ ने द्वैतवाद को अपनाया, पुरुष और प्रकृति के योग से संसार की व्याख्या की। क्या पुरुष में प्रकृति नहीं होती? या प्रकृति पुरुष के बिना संभव है? जड़ता और चेतना के बीच जो द्वंद्व है, उस पर मंथन करते सुकांत अपनी गाड़ी हाँकता झारखंड से गुज़रता ओडिशा की तरफ़ जा रहा है। थोड़ा उत्साहित, थोड़ा आशंकित भी।
दुर्गा पूजा का कल आख़िरी दिन था। रास्ते में उसने कई पंडाल देखे, और देखा वहाँ से उठता शोर। इस शोर से शांति की कामना भी यह लोक और उसका तंत्र कैसे लगा पाता है? सारथी होना उसके स्वभाव में है। अपना वाहन, अपनी यात्रा उसे आत्मनिर्भरता का बोध देती है। ‘सुकांत’ के शाब्दिक अर्थ का जुड़ाव उस सारथी से भी है, जो गीता के ज्ञान से जुड़ा है। कृष्ण के वचन अपौरुषेय थे, या वे वेद व्यास के अनुमान के वाहक मात्र एक काल्पनिक किरदार हैं? क्या राम इतिहास के पात्र हैं? क्या दुर्गा और महिषासुर एक ही कहानी के पात्र नहीं हैं? ऐसे सवालों से जूझता सुकांत रांची और बालासोर के बीच 318 किलोमीटर की दूरी तय करने की कोशिश कर रहा था। रास्ते में मिलते पहाड़, टीले, नदियों को निहारता वह अनिशा से पूछता है- “क्या तुम्हें पता है, जिस धरती पर हम सफर कर रहे हैं, उसका नाम क्या है?”
वैसे तो अनिशा ने हिंदी साहित्य में मास्टरी की, और फ़िलहाल भारत के विभाजन पर शोध कर रही है। पर, उसकी शिक्षा-दीक्षा बिहार बोर्ड के हिंदी माध्यम से हुई है। सुकांत अंग्रजी माध्यम का छात्र रहा, और साथ ही दो-दो बार यूपीएससी की ईमानदारी से तैयारी की है। यूपीएससी के विस्तृत पाट्यक्रम ने उसे बहुत सारी सूचनाओं से अवगत करवाया है। इन सूचनाओं को वह अपनी अर्धांगिनी तक पहुँचकर पूरी करने की कोशिश कर रहा है, और मैं उसका साथ देने की। अनिशा ने क़यास लगाते हुए, भारत को उत्तर बताया। जवाब उसका सही था। पर, सुकांत की अपेक्षा कुछ और थी। वह धरती के उस टुकड़े का नाम सुनना चाहता है, जिसे भूगोल में ‘गोंडवाना’ के नाम से जाना जाता है। यह भू-भाग कभी ऑस्ट्रेलिया के पास हुआ करता था। ऐसा उसने भूगोल की किताबों में पढ़ा था। उसने वहाँ यह भी पढ़ा था कि जब यह भूखंड एशियाई महाद्वीप से टकराया तब हिमालय का उदय हुआ, लाखों सालों का यह विकास आज भी जारी है। हर साल हिमालय कुछ इंच ऊँचा होता जा रहा है। हिमालय से कई नदियाँ निकली, जिसमें गंगा सबसे प्रमुख नदी है। नदियों ने जिस मिट्टी को गोंडवाना के पठार और हिमालय के बीच बिखेरा उससे बाढ़ ग्रस्त मैदान बने, उत्तर-प्रदेश और बिहार का इलाक़ा इन्हीं मिट्टियों का तो बना है। आज भी हर साल ये क्षेत्र बाढ़ पीड़ित होते हैं। रांची आने से पहले सुकांत अपने परिवार के साथ इन्हीं बाढ़-ग्रस्त इलाकों में रहता था। अक्सर बरसात के दिनों में उसके घर भी गंगा घुस आती थी।
अनिशा से बातें करते, सूचनाओं का आदान प्रदान करते, गाड़ी ने 318 किलोमीटर की दूरी 6 से 7 घंटों में पूरी की। गाड़ी से निकलते ही एक दुर्गंध फ़िज़ाओं में फैली मिली। मरी हुई मछलियों की दुर्गन्ध पूरे वातावरण में बिखरी थी। इंटरनेट की मदद से जिस रिसोर्ट को उसने अपनी मंजिल बनायी थी, वहाँ आज जगह नहीं मिली। सारे कमरे भरे हुए थे। बगल के ही एक रिसोर्ट में रात को रुकने की जगह मिली। सामान को ठिकाने लगाकर दोनों चांदीपुर के समुद्री तट पर पहुंचे। अनिशा ने पहली बार समुद्र देखा था। उसकी आखों को विस्तार मिला, सुकांत उसे देख रहा था। कुछ देर चहलकदमी कर दोनों कमरे पर लौट आए। समुद्र का यह किनारा गंदगी और प्रदूषण का शिकार मिला। जिस कमरे में उन दोनों ने रात गुजारी उसे भी सफ़ाई की दरकार थी। इसलिए, सोने से पहले ही उन दोनों ने फ़ैसला किया कि अगली सुबह वे बालासोर से आगे निकल जाएँगे। हर रात सुबह के इंतज़ार में सो जाती है। नई सुबह, नई शुरुआत ही तो उम्मीद से हमारी मुलाक़ात करवाती है।