सत्यार्थ यात्रा —
कल की थकान आज पर भारी पड़ी। हमारी आँख सुबह देर से खुली। हम भारत के पूर्वी घाट पर हैं। मतलब, क्षितिज पर उगते सूर्य का दर्शन यहाँ संभव है। वैसे तो कोणार्क अपने भव्य सूर्य मंदिर के लिए प्रसिद्ध है, पर सोचिए! अगर सूर्य ही न होता तो मंदिर किसने और किसका बनाया होता? थोड़ी देरी से ही सही, हम सूर्य के दर्शन करने चंद्रभागा तट पर पहुँचे। सूरज क्षितिज से कुछ ऊपर उठ चुका था, उसकी किरणें समुद्र की लहरों पर झिलमिलाते हुए आँखों में चुभने लगी थी। लोगों की भीड़ थी। बूढ़ों की ही बहुमत थी, आजकल देश की जवानी सुबह-सुबह ज़्यादा नहीं छलकती। यात्रियों से भरी बड़ी, लंबी, चौड़ी बसें सड़क किनारे लगी हुई थी। हमने उन बसों के अंदर से आती आवाज सुनी — “बस यहाँ बीस मिनट रुकेगी, दर्शन कर जल्दी नाश्ता कर लौटने की कृपा करें।”
बीस मिनट! बस बीस मिनट! सुकांत सोच रहा था कि क्या इस विशाल सागर की गहराई और उसके शांत सौंदर्य को बीस मिनट में महसूस किया जा सकता है? इन बीस मिनटों में नाश्ता भी इन लोगों को कर लेने की सलाह दी जा रही थी। संभवतः इन यात्रियों के लिए चंद्रभागा तो बस एक औपचारिकता भर होगी। वृद्धाश्रम में प्रवेश करते इन यात्रियों का उद्देश्य तो तीर्थाटन रहा होगा। इन टूरिस्ट बसों से निकलते-भागते लोगों पर तरस खाता सुकांत अनिशा के साथ तट किनारे पहुँचा। सचमुच सागर का यह किनारा बहुत ही सुंदर है। नीले पानी पर सफेद लहरें जो रेत पर बिखरती, लौटती, फिर वापस बिखरने लौट आती। लौटती इन लहरों में सौ शेरों की दहाड़ थी। मनमोहक नजारा था। भिन्न-भिन्न भाषाओं में लोग ठहाके लगा रहे थे। कुछ इत्मीनान से सागर निहार रहे थे। कुछ हड़बड़ी में जितना सुख मिल सके, बटोरने में लगे थे।
भीड़ से दूर जाने की कोशिश में हम थोड़ा आगे निकल पड़े। समय की कोई पाबंदी नहीं थी। हमने तट किनारे थोड़ी चहलक़दमी की। सुकांत रेत पर नंगे पांव दौड़ पड़ा। थोड़ी दूर उसे सागर किनारे एक व्यक्ति दिखा, निश्चय ही वह स्थानीय रहा होगा। बिना लोटा लिए झाड़ियों में थोड़ी देर बैठा रहा, फिर धोने सागर किनारे जा बैठा। अपना पिछवाड़ा धोकर वह भीड़ में वापस विलीन हो गया। सुकांत उसके इस खुलेपन की सराहना तो नहीं कर पाया, उसे गुस्सा थोड़ा या थोड़ा ज़्यादा ही आया। क्या यही ‘ब्लू फ्लैग’ प्रमाणित तट है? जहाँ पर्यावरण की रक्षा के नाम पर हर साल लाखों खर्च होते हैं, वहीं यहाँ की वास्तविकता इस प्रमाणपत्र का उपहास करती प्रतीत होती है। तट से निकलते ही नारियल पानी बेचने वालों की भीड़ ने हमें घेर लिया। हमें लगा कि यहाँ नारियल सस्ते होंगे, लेकिन कीमतें हमारी उम्मीद से कहीं ज़्यादा निकली। नारियल पानी पीकर और कुछ हल्का नाश्ता कर हम अपने कमरे में लौट आए।
इस यात्रा की शुरुआत से ही सुकांत के मन में अपनी अगली दो किताबों को लिखने की इच्छा थी। सत्यार्थ यात्रा का एक प्रमुख उद्देश्य यही था कि इन किताबों को लिखने से पहले वह अपने विचारों को और स्पष्ट कर सके। एक किताब सत्यार्थ यात्रा के अनुभवों को समेटेगी, जबकि दूसरी ‘पब्लिक पालिका’ की अवधारणा पर आधारित होगी– जिसमें लोकतंत्र और नागरिक भागीदारी के नए आयाम तलाशने की कोशिश होगी। पब्लिक पालिका पर अधिक जानकारी आगे के लेखों के साथ आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं — https://sukantkumar.com/public-palika-democracy-distributed।
कमरे पर लौटकर, सुकांत ने अनिशा को कुछ पढ़ने की सलाह दी। उसने अपने साथ ढेरों किताबें किंडल और रिमार्के बल डिवाइस पर लोड कर रखी हैं। छठी से बारहवीं कक्षा की एनसीईआरटी किताबों से लेकर दर्शन और साहित्य तक। उसने अनिशा को छठी कक्षा की अंग्रेजी की किताब पढ़ने को दी, और ख़ुद स्वामी विवेकानंद की “Meditations & its Methods” में खो गया।
दोपहर के खाने के बाद सुकांत को एक वीडियो की याद आई जिसे उसने कॉलेज के दिनों में देखा था। ऐपल कंप्यूटर्स के संस्थापक स्टीव जॉब्स ने स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में यह भाषण दिया था। उस भाषण का नाम — “Stay Hungry, Stay Foolish” है, मतलब भूखे रहो, मूर्ख रहो। यह भाषण अंग्रेजी में है। सुकांत ने पूरे भाषण को हिंदी में अनिशा को समझाया। इस भाषण ने सुकांत के जीवन पर गहरा असर छोड़ा है। वह अनिशा को समझाना चाहता था कि कैसे औपचारिक शिक्षा से परे जाकर जीवन के अनुभव ही असली शिक्षक होते हैं।
दिन ढला, शाम हुई। सुकांत और अनिशा वापस चंद्रभागा तट पर जा पहुँचे। शाम की शांति में दोनों बहुत देर बैठे रहे। कभी बातें की, कभी चिंतन। भारत में औपचारिक शिक्षा की स्थिति दिनों-दिन दयनीय होती जा रही है। देश का शिक्षित वर्ग ही देश पर नया खतरा बन चुका है। राजनीति में भी अशिक्षा ही लोकतंत्र की सत्ता पर प्रबल दावेदार बन बैठी है। इधर पढ़-लिखकर लोक नौकर बनने को लालायित है। जिस देश में शिक्षा ही गुलामी को प्रोत्साहित कर रही हो, उसे आजाद, आत्मनिर्भर कैसे माना जा सकता है? बातों ही बातों में सुकांत ने कल्पना को नई उड़ान देने की भी कोशिश करते हुए अनिशा से कहा — “देखो!
जहाँ तक दृष्टि जाती है, पानी ही पानी है। सदियों पहले इन तारों को देखकर किसी ने समुंदर पार करने की पहली कोशिश ऐसे ही तट पर बैठकर की होगी। आज दुनिया कितनी छोटी हो गई है। फिर भी हम कितने अनजान हैं? हमारी अज्ञानता का व्यापार हो रहा है। स्कूलों का प्रांगण भी भ्रष्टाचार का शिकार हो चुका है। ना निजी ना सरकारी शैक्षणिक संस्था शिक्षा की जिम्मेदारी उठाने को तैयार नजर आती है। पैसे भी हम ही भरते हैं, और बच्चे भी हमारे ही शोषित हैं। उपस्थिति की जिम्मेदारी भी अभिभावकों और छात्रों की है। स्कूल पहुँचाने से लेकर अपने बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी हमारी ही है। ऐसा लगता है स्कूल की जिम्मेदारी बस फीस लेना और होमवर्क देना बच गया है। सिर्फ़ फीस ही नहीं, किताबों से लेकर कपड़े भी महंगे हैं। क्या स्कूलों की जिम्मेदारी इतनी भी नहीं है कि बच्चों को वहाँ आने का पर्याप्त कारण मिले?
एनसीईआरटी की किताबों को देश के बुद्धिजीवियों के समूह ने काफ़ी सोच समझकर रचा होगा। लोक सेवा के अभ्यर्थियों को सबसे पहले इन्हें ही पढ़ने की सलाह ना जाने कितने कोचिंग दे रहे हैं। फिर क्यों देश के स्कूल कॉलेज में महँगी-महँगी किताबें बेची जा रही है? निजी प्रकाशकों ने मुनाफ़े की होड़ में विद्या की ही अर्थी उठाने पर विद्यार्थियों को मजबूर कर दिया है। क्या पूरे देश के विद्यालयों में एनसीईआरटी को आधार बनाकर पढ़ाई नहीं करवायी जा सकती? ये किताबें मुफ्त में जनहित के लिए उपलब्ध हैं। सारी कमाई बेकार की किताबों में लोकतंत्र खर्च कर रहा है, तभी तो मुझ जैसे लेखकों को पढ़ने के पैसे इनके पास नहीं बचे हैं।” अनिशा सोचती रही, सुकांत भी।
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