व्यंग्य – एक दिवसीय मजिस्ट्रेट!

पैक्स चुनाव में ड्यूटी मजिस्ट्रेट की

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डा. सुधांशु कुमार

उस रोज पता नहीं किसका मुंह देखकर उठे थे कि दो पहर होते-होते चुनाव आयोग का ‘प्रेमपत्र’ मिल गया! निष्कर्ष- पैक्स चुनाव! ड्यूटी- मजिस्ट्रेट! अब यह मत पूछ बैठिएगा – सेक्टर या पेट्रोलिंग? हर जगह हर बात खोल-खोलकर नहीं कही जाती!
खैर! चुनाव करवाने जा ही रहे थे कि हमारे वनस्पति शास्त्र वाले मित्र फिर मिल गए! मैं उनसे कुछ पूछता, उससे पूर्व वही तपाक से छींक दिए- ‘मुंह-कान बनाकर कहां जा रहे हैं जी?’
मैंने मन मसोस कर प्रत्युत्तर छोड़ा – नहीं हो, चुनाव करवाने जा रहे हैं!
अच्छा! आपको चुनाव में भेज ही दिया इलेक्शन कमीशन ने? उनके इस प्रश्न ने मुझे आत्मावलोकन पर मजबूर कर दिया। मैंने अपने भीतर ताक-झांक करते हुए उनसे प्रतिप्रश्न कर दिया – ‘क्यों, मैं उसके योग्य नहीं हूं क्या?’
‘अरे नहीं, मेरा मतलब वो नहीं है जी!’ उन्होंने अपनी बात संभालने की कोशिश करते हुए पुनः पूछा, ‘किस चीज में दिया है ड्यूटी?’
‘रसोइया में!’
‘आप ‘परफेसर’ से रसोइया कब हो गए?’
‘जब से आप मास्टर से ‘परफेसर’ हो गए हो’- मेरे स्वर की ध्वन्योक्ति पर उन्होंने बात संभालने की कुचेष्टा करते हुए कहा -‘अरे मेरा मतलब वो नहीं था! हम तो यह जानना चाहते हैं कि पी वन , पी टू , पी थ्री या पीठासीन अधिकारी बनाया है आपको? – मुझे लगा कि पीठासीन के बाद वह मजिस्ट्रेट भी ‘उगल’ ही देंगे !! किंतु जब उन्होंने ‘पवर्ग’ के अंतिम वर्णयुक्त शब्द का उच्चारण करना उचित नहीं समझा तो मुझे लगा कि यदि चुनाव पर नहीं जा रहे होते, गजटेड वाली फीलिंग न होती और बालपन में होते, तो यही उचित समय था ‘उठापटक’ करने का! किन्तु उस प्रकार की सारी भावना- संभावनाओं को सिरे से खारिज करते हुए मैंने ‘मजिस्ट्रेट’ की जबरदस्ती वाली फीलिंग के साथ कह छोड़ा – ‘नहीं हो, पेट्रोलिंग मजिस्ट्रेट में हूं!’
‘अच्छा जाइए! पेटी ढोवाएगा !! सावधानीपूर्वक ढोइएगा, बूथे-बूथे माथा पर रखकर पहुंचाइएगा, तब उसके बाद दिन भर कौनो कोना पकड़कर ‘बइठ’ जाइएगा, फिर शाम में वही सुबह वाली पुनरावृत्ति! एक बात और, एक दिनवा मजिस्ट्रेट बने हैं, तो बचकर ही रहिएगा, ‘जादे’ बकतूती नहीं, फुल गंभीर। न त बस! समझ गए न !! ‘जतड़ा’ पहर मैं आपका मन खट्टा नहीं करना चाहता लेकिन आप मेरे सुपरसोनिक फ्रेंड हैं, इसलिए मुफ्त में एक सलाह और मैं दिए देता हूं ! एससीईआरटी वाली हंसी-ठिठोली वहां तो बिल्कुल नहीं ! वरना मिनट में कंधा पर चढ़कर …! ‘उनके इस सलाह वाले वाक्यों के अंतिम अधूरे वाक्यांश ने घंटों से ‘बनी-बनायी’ मेरी मजिस्ट्रेट वाली फुल फीलिंग पर सेकेंड में पानी फेर दिया। मैं मित्र और शत्रु में अंतर करना भूल गया! मानो मेरे कान्फिडेंस की जड़ों को उन्होंने हाथी की तरह सूंढ़ से पकड़कर हिला दिया !! दरअसल इस तरह की सलाह वह मुझे मेरी बरात के दिनों से ही देते आ रहे हैं। तब पहली बार उन्होंने ‘मड़बा’ पर गंभीर रहने की सलाह देते हुए कहा था -‘बियाह’ करने जा रहे हैं, वहां गंभीर बनकर रहिएगा, न- त वहीं ‘खिखियाने’ मत लगिएगा, वरना सब बकलोल दुलहा कह कहकर गरिआएगी’ ! मैंने तब जो उनकी सलाह मान ली, उससे उनका ‘कान्फिडेंस’ लेवल उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया और अब तो जब भी किसी कार्य पर जाता हूं, साथ में उनकी सलाह की ‘लिट्टी’ अवश्य होती है। खैर !
उनकी इस ध्वन्योक्ति ने मुझे अलर्ट मोड पर डाल दिया! खासकर पेटी वाली बात सुनकर एक तरफ कूली फ़िल्म का अमिताभ बच्चन लाल कपड़े में मेरे कैरेक्टर में घुसने को बेचैन हो रहा था और दूसरी तरफ मेरे अंदर विराजमान एक दिवसीय मजिस्ट्रेट साहब की ‘ठसक’ उसे घुसने नहीं दे रही थी ! लग रहा था, दोनों में ‘धक्कामुक्की’ की नौबत आ जाएगी ! खासकर उनके अंतिम वाक्यांश की ध्वन्योक्ति ने तो और मेरी फीलिंग को तोड़-मरोड़ कर रख दिया ! मैंने उनका प्रतिकार करते हुए उन्हें समझाने का प्रयास किया – “आखिर मजिस्ट्रेट पेटी क्यों ढोएगा ! दरोगा -वरोगा, पुलिस -वुलिस रहेगी न, ऊ लोग उठाएंगे!
“अच्छा ! बिहार पुलिस !! उसमें भी होमगार्ड से उठेगा? जिनसे उनकी चरफिट्टा बंदूक संभलती नहीं, वे आपकी पेटी उठाएंगे? फिर इस कड़ाके की ठंड में जिनकी लकुटी कमरिया उनके साथ हो? वो क्यों उठाने लगे पेटी? लेकिन एक बात हो सकती है ! ‘उनके अंतिम वाक्य ने मेरे अंदर मिट रही मजिस्ट्रेट वाली फीलिंग और उससे उत्पन्न घनघोर निराशा के बीच आशा की एक किरण उसी प्रकार जागृत कर दी, जैसे भारत के एक पचपन वर्षीय बच्चा के मन में प्रधानमंत्री बनने की अभिलाषा या अमेरीका के चुनाव में हारते-हारते ट्रंप के जीत जाने का ‘कौतूहल’! ‘मैंने तपाक से उनके समक्ष लघुशंका जाहिर करते हुए उनके द्वारा बार-बार ‘पेटी’ शब्द के प्रयोग पर आपत्ति दर्ज कर दी – ‘आप बार-बार ‘पेटी’ क्यों बोलते हैं ? “मेरा इतना कहना ही था कि लगा, वो भी मेरे इस तरह के किसी प्रश्न के लिए पहले से ‘फेंटा’ कस कर तैयार खड़े थे -“क्यों हुजूर ! बक्सा कहने से हमारे दो दिवसीय मजिस्ट्रेट साहेब का ईगो हर्ट हो गया? अरे हमारा मतलब यह नहीं था जी, जिसे आप दिल पर ले लिए ?
“भगवान ने जब दिल दिया है, तो उसी पर न लेंगे, आपकी तरह हम बेदिल थोड़े हैं हो! “मुझे लगा, मेरी इस बात से वह थोड़ा इमोशनल हो गए! कहने लगे- ‘अरे हम तो आपके सच्चे मित्र नू हैं जी, इसलिए सावधान करते रहते हैं! वैसे जाइए, ठीक से चुनाव करवा कर सकुशल लौट आइए। ईश्वर से प्रार्थना करते रहेंगे कि आपके साथ कोई कांड न हो!”

लेखक व्यंग्यकार, स्तंभकार और शिक्षाविद हैं

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