
अंगिका के लोग लड़ना जानते हैं। ये लड़ेंगे भी और जीतेंगे भी। अंगिका की माटी विद्रोही-चेतना से तरंगित रही है। ये लोग हर उपेक्षा का प्रतिरोध करते रहे हैं, भले ही इन्हें कवच-कुण्डल तक देना पड़ा हो। कर्ण की कृतज्ञता ख्यात है। अंगिका की जिस तरह से लगातार उपेक्षा हुई वह सवाल बनकर खड़ी हुई है।
इसके लिए हम अंगिका समाज को दोष नहीं दे सकते, न जाने कितनी जिंदगी को तबाह होते मैंने खुद देखा है। भूखे प्यासे रह कर, तिनका-तिनका जोड़कर, पूरी जिंदगी झोंक कर जिन लोगों ने अपनी मातृभाषा अंगिका का संरक्षण और संवर्धन किया, ये ही असली देशभक्त हैं। मेरा मानना है कि जो मातृभाषा की रक्षा नहीं कर सकता, वह मातृभूमि की भी रक्षा नहीं कर सकता।
यहां का जन्मजात संस्कार है हर मातृभाषा का सम्मान करना। अंगिका के लोग मैथिली का भी सम्मान करते हैं, पर ये अपनी अंगिका की उपेक्षा कैसे सह सकते हैं? अफसोस है कि मैथिली द्वारा अंगिका का अपमान जारी है। सारी सुविधा मैथिली हड़प लेती है और अंगिका मूँह ताकती रह जाती है। यह कथित मैथिल-साम्राज्य, मुगल- साम्राज्य की तरह आक्रांता की भूमिका में है। अंगिका को उपनिवेश बनाना घातक सिद्ध हो सकता है।
मैथिली का मतलब केवल मैथिल ब्राह्मण नहीं होता। मैथिल यादव, मैथिल कुर्मी कहार का अंगिका से कोई लेना देना नहीं। इस इलाके के कुछ स्वार्थी लोग ही केवल वर्चस्ववाद का खेल खेल रहे हैं। मिथिला की मिट्टी में कुंठा है। प्रेम और मिठास केवल इनकी भाषा है,भाव नहीं।
अंगिका के मैथिल ब्राह्मण की कोई शानी नहीं। इनकी विराटता का भी कोई जोड़ नहीं। हमारे यहां बहादुर मिश्र और मधुसूदन झा सभी मैथिल ब्राह्मण होते हुए भी आज अंगिका के योद्धा हैं। गर्व है इनपर। दिल्ली में बैठे कुछ मैथिल-ब्यूरोक्रेट और नेता लोग अंगिका के खिलाफ लगातार षड्यंत्र करते रहते हैं। ताज़ा एनसीईआरटी की घटना इसी का उदाहरण है।
वैसे यह कोई अकादमिक प्रश्न नहीं है, बल्कि इस जनपद के अस्तित्व के प्रश्न हैं। उपेक्षा कभी एकांगी नहीं होती। यह जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित करती है। यहां के लोग कहते हैं कि अंगिका को कमजोर की लुगाई न होने दें। नहीं तो यह मैथिलों की भौजाई की तरह मजाक बनती रहेगी।
आंदोलन तो शुरू हो रहा है पर कोई एकता की स्थिति कमजोर नजर आती है। अंगिका में नेतृत्व का बड़ा संकट है। अपने ही नेता को अर्धरथी कहने की पुरानी आदत गयी नहीं है। लड़ाई के तरीके पर इन्हें बात करनी होगी। मुर्दा जन प्रतिनिधियों को इन्हें जिन्दा करना होगा। मूंहधुप्पा नेतबन को लेकर ये क्या करेंगे? इन आंन्हर पिया पर अब श्रृंगार करने का वक्त नहीं है। गर्दन पकड़नी होगी इनकी। प्रेस के सामने इन्हें बैठाया जाय, बोलबाया जाए, लिखवाया जाए। कम से कम अंगिका के दस सांसद तो हैं ही संसद में। ये क्यों नहीं बोलते हैं? इन्हें बोलबाना पड़ेगा।
यह केवल साहित्य की लड़ाई नहीं है। यह समाज की लड़ाई है। समाज के सभी वर्ग को साथ लाना होगा। अंगिका के लोगों के लिए यह रूठने मनाने का वक्त नहीं है। यह रार ठानने का समय है।
इन्हें निराश नहीं होना चाहिए। आपस में कोसने और सहलाने का समय नहीं है। आंदोलन में फूफा तो होंगे ही! ये किसी भी आंदोलन का प्रति-उत्पाद ही होते है। उम्मीद है कि अंगिका आंदोलन का यह कुशल नेतृत्व सबों को सहलाते हुए आगे बढ़ेंगे। अंगिका अब समाज का गीत गाएगी। समाज उठ खड़ा होगा। अपना गीत हम बाद में भी गा लेंगे।