प्रेमचंद का संघर्ष प्रेरणादायक
बच्चों! प्रेमचंद को पढ़ो, जीवन के संघर्षों में उर्जा मिलेगी
ब्रह्मानंद ठाकुर
आज के ठाकुर का कोना में मैं प्रख्यात उपन्यासकार प्रेमचंद के बहाने नई पीढ़ी में नीति-नैतिकता, मानवीय मूल्यबोध और आत्मसम्मान बचाए रखने का आग्रह कर रहा हूं। आज जब बेशुमार काले धन के प्रभाव से युवा पीढी की नैतिक रीढ़ तोड़ी जा रही हो, बेरोजगार नौजवानों की बड़ी तादाद भ्रष्ट राजनीति के शिकार हो रहे हों, अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए इंसान अपनी इज्जत, अपना मान-सम्मान गिरवी रख रहा हो, ऐसे में मुंशी प्रेमचंद के संघर्षमय जीवन से प्रेरणा ली जा सकती है। वे आजीवन आर्थिक तंगी से जूझते रहे, लेकिन कभी भी अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं किया। वे अपनी आन और सिद्धांत के सामने पद एवं रुपये-पैसे को कोई महत्व नहीं देते थे।
बात 1924 की है। प्रेमचंद जी लखनऊ में थे। उनका उपन्यास रंगभूमि छप रहा था। तभी उनको अलवर रियासत के राजा साहब की एक चिठ्ठी मिली। राजा साहब उपन्यास और कहानी के शौकीन थे। पत्र में उन्होंने प्रेमचंद को प्रति माह 400 रुपये नगद, मोटर और बंगला आदि की सुविधा देने की बात कहते हुए सपरिवार अरवल आने का प्रस्ताव दिया था। तब प्रेमचंद ने पूरी विनम्रता के साथ अलवर राजा के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। इसी से मिलती-जुलती एक और घटना का यहां मैं जिक्र करना चाहता हूं। तब एक लेखक के रूप में प्रेमचंद की ख्याति काफी बढ़ चुकी थी। उनके उपन्यास सोजे वतन की प्रतियां जलाई जा चुकीं थीं और उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी थी। उन दिनों सर माल्कम हेली उत्तर प्रदेश के गवर्नर थे। उन्होंने प्रेमचंद को रायसाहबी का खिताब देने का एक प्रस्ताव भेजा था। इस प्रस्ताव के जवाब में प्रेमचंद ने जो लिखा वह आज के कथित जनपक्षीय साहित्यकारों को स्वप्न लोक से जमीन पर लाने के लिए काफी है। उन्होंने लिखा, यदि मैं रायसाहबी स्वीकार कर लेता हूं तो मैं जनता का आदमी न रह कर, एक पिट्ठु बन जाऊंगा। अभी तक मेरा सारा काम जनता के लिए हुआ है, तब गवर्नमेंट मुझसे जो लिखवाएगी, लिखना पड़ेगा। मैं जनता का तुच्छ सेवक हूं। जनता की रायसाहबी मिली तो सिर आंखों पर, गवर्नमेंट की रायसाहबी की इच्छा नहीं है।
आज देख रहा हूं कि साहित्य के क्षेत्र में दिए जाने वाले विभिन्न सरकारी पुरस्कारों को झपटने के लिए आपाधापी मची हुई है। तथाकथित जनपक्षीय लेखक भी सरकारी पुरस्कार पाने की दौर में पीछे नहीं रहते हैं। तो, बच्चों! प्रेमचंद का सम्पूर्ण जीवन जिंदगी जीने की कला सिखाती है। इनको पढ़ना और समझना जरूरी है। ऐसा इसलिए भी कि यदि नीति-नैतिका और आत्मसम्मान बचा रहेगा तो हम सिर उठाकर स्वाभिमान के साथ जिंदा रह सकेंगे। प्रेमचंद की तरह।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)