डॉ योगेन्द्र
ट्रेन की खिड़कियों से बिहार को देख रहा हूँ। बाहर हल्की धुंध है। सूरज उग रहा है। गांव देहात के लोग यथासंभव गर्म कपड़ों में लिपटे हैं। साहिबगंज से ट्रेन आगे की ओर मुख़ातिब होती है तो महसूस होने लगता है कि बिहार आ गया। पिछले माह यहां आया था। तीन दिन रूका था। बहुत हड़बड़ी थी। वापस लौट गया था। इस बीच छात्रों का आंदोलन हुआ। सरकार ने लाठियां भी भांजी और छात्रों ने प्रतिरोध भी किया। कहा जाता है कि बिहार के लोग राजनीतिक रूप से बहुत सचेत होते हैं। यह सच है कि यहाँ रह-रह कर उबाल आता है, लेकिन यह उबाल बुनियादी परिवर्तन नहीं कर पाता। वरना यहाँ के लोग रोजी रोजगार के लिए पूरे देश में मार नहीं खा रहे होते। कभी इन्हें असम में पीटा जाता है तो कभी मुंबई में। देश के अन्य इलाकों में उन्हें देखने की दृष्टि भी अच्छी नहीं होती। अगर यहां जमीनी बदलाव होता तो लोग क्यों भटकते रहते? जबकि यहॉं की मिट्टी बंजर नहीं है। गंगा सहित अनेक नदियाँ यहाँ की धरती को भिंगोती है। हाँ, यहाँ जाति चेतना बहुत है। जाति-जाति का खेल यहाँ बहुत होता है। फेसबुक पर बिहारियों का आकलन कीजिए तो महसूस होगा कि वे जाति के प्रति कितने सचेत हैं। उनकी जाति के कोई युवक या युवती ने किसी चीज में अच्छा किया तो उसके पक्ष में तुरंत पोस्ट लिख दिया जाएगा।
वैसे तो राजनीति में दूध का धुला तो कोई नहीं होता, लेकिन कालिख में डूबे लोग भी नहीं होना चाहिए। केजरीवाल ने मुख्यमंत्री रहते सोने का कमोड बनवाया। कौन बेवक़ूफ इसे स्वीकार करेगा और आइने अकबरी का हवाला देकर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ कह रहे हैं कि उसमें साफ लिखा है कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई। जबकि आइने अकबरी के पृष्ठ संख्या 281 पर लिखा है कि संभल में विष्णु का एक मंदिर है जो एक ब्राह्मण की निजी संपत्ति है। मान्यता यह है कि यहां विष्णु का अवतार होगा। अबुल फजल ने इतना ही लिखा है। कहीं भी यह नहीं लिखा कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई। एक मुख्यमंत्री इतिहास के पन्नों का हवाला देकर जनता के सामने झूठ परोस रहे हैं। आग लगाने के लिए क्या जरूरी है कि झूठ पर झूठ बोलें? संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति इतना दायित्वहीन कैसे हो सकता है? ठीक है कि बीजेपी को अल्पसंख्यक अच्छे नहीं लगते। इसलिए वह लोकसभा या विधानसभा के चुनावों में मुसलमानों को उम्मीदवार नहीं बनाती। जहाँ एकदम मजबूरी है, वहाँ एकाध टिकट दे देती है। कहलाती राष्ट्रीय है, लेकिन राष्ट्र का न दिल रखती है, न दिमाग। मजा यह है कि जो व्यक्ति साधु बन जाता है, उसे तो कम से कम झूठ का सहारा नहीं लेना चाहिए। ट्रेन से ही मैंने एक बोर्ड पढ़ा- प्राथमिक विद्यालय चंधेरी। याद आया कि यह वही गांव है, जहाँ आदमी को काट कर उसे खेतों में गाड़ कर गोभी बो दिया गया था। आदमी को कोई काम नहीं मिलता है तो दिमाग शैतानियों में गुजरता है। बड़े पदों पर बैठे लोग जब नफरत परोसते हैं तो नीचे उसका दुष्प्रभाव होता ही है। दुष्प्रभाव अगर वोट और नोट में बदल जाए तो सोने में सुहागा। ऐसे लोगों की बहक और चहक यों ही नहीं आयी है। हम सब भी इसके गुनहगार हैं।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)