ब्रह्मानंद ठाकुर
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राजनीति एक उच्च वृत्ति मानी जाती थी। उस दौर में गैर समझौतावादी राजनीति ने उच्च नीति नैतिकता और मानवीय मूल्यबोध को जन्म दिया। खुदीराम बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुकदेव, सुभाषचंद्र बोस, अशफाकुल्लाह खां, ऐसे अनेक महापुरुष उस युग में पैदा हुए। ये लोग अपने चरित्र, बहादुराना संघर्ष और समाज के शोषित-पीड़ितों के प्रति प्यार के कारण उन दिनो युवा पीढ़ी के लिए आदर्श बन गये थे। हालांकि तब समझौतावादी धारा के उद्योगपति, भूस्वामी और धनवान लोग भी नाम, इज्जत और शोहरत पाने के लिए आंदोलन में शामिल हुए थे। तब इनमें भी ईमानदारी, समर्पण और उच्च आदर्श का भाव था। इसका प्रभाव जनता के नैतिक मूल्यों और संस्कृति पर भी पड़ा। उस दौर में परिवार में बच्चों को नैतिक शिक्षा दी जाती थी। आस-पास के बड़े-बुजुर्ग भी प्रयास करते थे कि उनका चरित्र बच्चों के लिए अनुकरणीय बने। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बढ़ती सत्ता लोलुपता ने राजनीति को कलंकित करने का काम शुरू कर दिया।
चुनाव जीतने के लिए धनबल और बाहुबल का प्रयोग होने लगा। बेरोजगार युवाओं को खरीद कर उन्हें अपराधी बनाने और फिर उनकी मदद से चुनाव जीतने की कला विकसित हुई। बाद में तमाम राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने की लिए यही हथकंडा अपनाने लगीं। छात्र राजनीति भी इसका अपवाद नहीं रही। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में आंदोलन की गैर समझौतावादी धारा के नेतृत्व ने छात्र-युवाओं को आंदोलन में शामिल करने पर विशेष बल दिया था। यहीं से छात्र-युवाओं का संगठन बनाने की शुरुआत हुई। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने पहली बार निर्वाचित छात्रसंघ की मांग उठाई। उनका मानना था कि यह निर्वाचित छात्रसंघ छात्रों की लड़ाई का हथियार बनेगा। पंजाब में भगत सिंह ने भी 1923 में छात्र युवा संगठन… नौजवान भारत सभा का गठन किया था। परिणाम यह हुआ कि उस समय अधिकांश प्रमुख शिक्षण संस्थान आजादी आंदोलन के केन्द्र बन गये। समझौतावादी रास्ते से ही सही, देश आजाद हुआ। सत्ता की बागडोर संभालते ही छात्र-युवा शक्ति की नैतिक रीढ़ तोड़ने और उन्हें अपने स्वार्थ के हित में प्रयोग करने का सिलसिला शुरू हो गया। आज कतिपय छात्र संगठन जो बड़ी-बडी राजनीतिक पार्टियों से जुड़े हैं, वे धनबल और बाहुबल के सहारे छात्र संघों पर कब्जा कर रहे हैं। यह सब इसलिए हो रहा है कि शासक वर्ग इस तथ्य से भलीभांति वाकिफ हैं कि जनता के आंदोलन को अस्त्र-शस्त्र, गोला-बारुद से नहीं दबाया जा सकता। इसके लिए छात्र-युवाओं के नैतिक मूल्यों को नष्ट करना होगा। यह सब सत्ता लोलुपता का परिणाम है। सत्ता लोलुपता ने राजनीति के उन्नत आदर्शों को आज कलंकित कर दिया है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)