सुनहले सपने दिखाने का दौर है, जरा बच के…

पूंजीवादी लोकतंत्र का चुनाव सपने दिखा कर ही कराए जाते रहे हैं

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ब्रह्मानंद ठाकुर
बिहार में दस महीने बाद विधानसभा का चुनाव होने वाला है। चुनाव के बाद बिहार की सत्ता पर काबिज होने के लिए अभी से जोर आजमाइश शुरू है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार महिला संवाद यात्रा पर निकलने वाले हैं। सरकारी स्तर से जिलों में इस यात्रा को लेकर तैयारी शुरू कर दी गई है। राष्ट्रीय जनता दल के नेता और पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने भी माई-बहिन मान योजना की घोषणा की है। इससे सम्बन्धित विज्ञापन भी अखबारों में छपा है। इस विज्ञापन के माध्यम से तेजस्वी यादव ने महिलाओं को बड़े सुनहले सपने दिखाए हैं। उन्होंने कहा है, विधान सभा चुनाव के बाद यदि राज्य में उनकी सरकार बनी तो महिलाओं को प्रतिमाह 2500 रुपये दिए जाएंगे। उपभोक्ताओं को 200 यूनिट बिजली फ्री दी जाएगी। सामाजिक सुरक्षा और वृद्धा पेंशन की राशि 400 रुपये से बढ़ाकर 1500 रुपये प्रति माह कर दिया जाएगा। ये सपने वास्तव में बड़े सुनहले हैं। हमारे देश की जनता सपना देखने की अभ्यस्त हो गई है। उसे अपने हुक्मरानों द्वारा आजादी के बाद से अबतक सपने ही तो दिखाए जाते रहे है। देखने और दिखाने में हर्ज भी तो कुछ नहीं है। राजनेताओं के लिए अपनी   भोलीभाली जनता को सपना दिखाना बड़ा आसान है। आसान इसलिए भी कि उन सपनों को साकार करने की गारंटी नहीं होती। इस पूंजीवादी लोकतंत्र का चुनाव सपने दिखा कर ही कराए जाते रहे हैं। अपने देश में 1952 से आज तक लगातार चुनाव हो रहे हैं। संसद के भी और राज्यों के विधान सभा के भी। कांग्रेस गरीबी हटाओ के नारे के साथ काफी समय तक सत्ता में रही। फिर अच्छे दिन लाने का वादा कर भाजपा सत्ता में आई। न कांग्रेस गरीबी दूर कर सकी और न भाजपा अच्छे दिन दिखा सकी। मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दबा की।
ऐसे में महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की एक कविता याद आ जाती है—
जनता धरती पर बैठी है
नभ में मंच खड़ा है
जो जितना है दूर मही से
उतना वही बड़ा है।
और यह भी, ऊपर ही ऊपर पी जाते हैं, जो पीने वाले हैं,
कहते हैं ऐसे ही जीते हैं जो जीने वाले हैं।
हां, यह बात भी सही है कि आजादी के बाद से अबतक देश में विकास जरूर हुआ है। मगर किसका? यह विकास हुआ है बड़े-बडे उद्योगपतियों का, व्यावसायिक घरानों का। विकास हुआ है राजनीतिक दलों के सांसदों, विधायकों और मंत्रियों का। ऐसे में आम जनता को चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों एवं उसके नेताओं द्वारा जो सुनहले सपने दिखाए जा रहे है, पिछले अनुभवों के आधार पर उसकी असलियत समझने की जरूरत है। अन्यथा एक लेकर इक्कीस तो देना पड़ेगा ही।

 

the dreaming phase
ब्रह्मानंद ठाकुर
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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