हुनरमंदों के मालिक से मजदूर बन जाने की दास्तान
परम्परागत रोजगार से विस्थापित होने की दारुण दास्तान
ब्रह्मानंद ठाकुर
मैं शुरू से ही खादी की धोती पहनता हूं। कभी विद्यार्थी जीवन में पाजामा पहनता था। सत्तर के दशक में मैंने धोती पहनने की जो शुरुआत की थी, अब तक पहन रहा हूं। अक्सर अपने निकटवर्ती गांव मझौलिया से धोती खरीदता था। उस गांव में हर घर में करघा चलता था। पहली बार एक जोड़ी धोती 18 रुपये में खरीदा था। मझौलिया मुजफ्फरपुर जिले के सकरा प्रखंड का एक गांव है। यहां बुनकरों की अच्छी आबादी है। अधिकांश भूमिहीन हैं। कुछ के पास कठ्ठे में जमीन है। इसलिए बुनकरी उनकी जीविका थी। महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन के दौरान इस गांव में कपड़ा बुनने का काम शुरू हुआ था। तब जगह- जगह खादी भंडार की स्थापना हुई थी। खादी भंडार से बुनकरों को धागा उपलब्ध कराया जाता, बदले में बुनकर हस्तकरघे पर कपड़ा तैयार कर खादी भंडारों को उपलब्ध कराते थे। अपने घरों में महिलाएं सूत कातती और वह सूत खादी भंडार उनसे खरीदता था। इसके लिए रुई भी खादी भंडार ही देता था। यह गांधी के स्वदेशी आंदोलन का एक हिस्सा हुआ करता था। गांधी जी का आह्वान था, काते सो पहने, पहने सो काते। उनके इस आह्वान पर घर-घर में महिलाएं चरखा पर सूत कातने लगी। खादी भंडारों से उन्हें सूत के बदले पैसे और कपड़े भी मिलते थे। 1961 में मझौलिया गांव में जब पहली बार बिजली आई, तब कोआपरेटिव सोसायटी से यहां 50 बुनकर परिवारों को पावरलूम दिया गया। शुरू के दिनों में बिजली आपूर्ति ठीक रही। पावरलूम चलने लगा। गांव में एक नया व्यवसाय शुरू हुआ। 1985 आते-आते बिजली संकट शुरू हुआ। महीनों बिजली नहीं। बुनकरों ने लम्बा इंतजार किया। बिजली नहीं तो पावरलूम चले कैसे? भुखमरी की नौबत आ गई। पावरलूम बिकना शुरू हुआ। गांव के युवाओ ने अपनी रोजी-रोटी के लिए महानगरों का रुख किया। कुछ बंगाल चले गये तो कुछ ने भिवंडी, बम्बई और गुजरात में मजदूरी शुरू कर दी। आखिर पापी पेट का सवाल जो है! अब वहां करघे नहीं चलते। पिछले महीने मैं अपने लिए धोती खरीदने जब मझौलिया गया तो मुझे धोती तो नहीं ही मिली, कुछ बूढे-बुजुर्ग बुनकरों ने अपने परम्परागत रोजगार से विस्थापित होने की दारुण दास्तान जरूर सुनाई। वह सुनकर मुझे ढाका के बुनकरों की दुखद कहानी याद हो आयी। 17वी, 18वीं शताब्दी में ढाका का मलमल बड़ा नामी हुआ करता था। वह इतना महीन होता था कि इसकी मसलिन साडी अंगुठी से होकर निकल जाए। दो सौ सालों तक मलमल सबसे कीमती कपड़ा रहा। विदेशों में इसकी बड़ी मांग थी। बाद में कुछ प्राकृतिक आपदाओं के कारण तो और कुछ ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की आर्थिक और राजनीतिक नीतियों के कारण ढाका का मलमल उद्योग नष्ट हो गया। कहा तो यह भी जाता है कि अंग्रेजों ने बुनकरों के अंगूठे तक काट लिए थे। आज पूंजीवाद ने इन बुनकरों की रोजी- रोटी छीन ली है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)