एक कथाकार का गुज़र जाना

सुधाकर जी महान कथाकार शरतचंद्र से बेहद प्रभावित थे

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डॉ योगेन्द्र
सुबह नींद खुली हीं थी कि एक बुरी खबर सुनाई पड़ी। मेरी मोबाइल बजी। अब मेरी मोबाइल की स्क्रीन पर अक्सर कोई नंबर नहीं उभरता, उसमें भी सुबह। सेवानिवृत्ति के बाद कम से कम स्क्रीन चुप हो गयी है, जबकि जब सेवा में था तो स्क्रीन थरथराती ही रहती थी। खैर। स्विच ऑन किया तो उधर से आवाज़ आई- सुधाकर जी नहीं रहे। यह खबर सुनते ही मन अतीत की ओर दौड़ने लगा। वे नब्बे वर्ष के थे। तीन वर्ष पूर्व कांता सुधाकर का निधन हो गया था। गोरे चिट्टे सुधाकर जी और ख़ूबसूरत कांता भाभी ने अंतर्जातीय शादी की थी। कांता जी के निधन के बाद सुधाकर जी उनकी स्मृतियों में जीते रहे। जब भी मैं मिला तो वे कांता जी की कविताएँ निकाल लेते या फिर उनके द्वारा लिखी पंक्तियाँ। वे उन पंक्तियों के साथ अतीत में खोये रहते। वे जीवन भर भागलपुर में टेलिफोन विभाग में कार्यरत रहे। दोनों सज्जन, दोनों स्नेहिल। दोनों साहित्यकार और दोनों अभूतपूर्व जोड़ी। सुधाकर जी मुख्यतया कहानी लिखते थे और कांता जी कहानी और कविता दोनों। सुधाकर जी ने अंगिका में भी लिखा और पत्रिकाओं का संपादन भी किया। अंगिका की पत्रिका ‘अंगप्रिया’ का कुशलतापूर्वक संपादन किया जिसमें हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियों का भी अनुवाद कर छापा। उस समय के चर्चित व्यंग्यकार अल्बर्ट कृष्ण अली का इंटरव्यू छापा। अल्बर्ट कृष्ण अली प्रो शिवनंदन प्रसाद का छद्म नाम था। वे भागलपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शिक्षक थे। प्रो शिवनंदन प्रसाद एक ‘समीक्षा‘ गोष्ठी चलाते थे जिसमें भागलपुर के तत्कालीन साहित्यकार डॉ बेचन, केदारराम गुप्त आदि भाग लेते थे। समीक्षा गोष्ठी संचालन में सुधाकर जी की महती भूमिका थी। सुधाकर जी बांग्ला के महान कथाकार शरतचंद्र से बेहद प्रभावित थे। उनका कहना था कि शरतचंद्र ने ही उन्हें कथाकार बनाया। कांता सुधाकर और सुधाकर का एक संयुक्त संग्रह छपा है जिसका नाम है-‘कथाकार का जन्म‘। इस संग्रह में एक हिस्से में सुधाकर जी की कथाएँ हैं और दूसरी तरफ़ कांता सुधाकर की कविताएँ। सुधाकर जी की एक कहानी ‘बेघर’ सारिका में छपी थी। उन्होंने आकाशवाणी भागलपुर में लगातार अपनी कथाओं का पाठ किया। आकाशवाणी में शब्दों की एक सीमा रहती थी। इसने सुधाकर जी की कहानियों को भी प्रभावित किया। उनकी कहानियाँ यथार्थवादी थीं जिसमें आम आदमी की पीड़ा दृष्टिगोचर होती थी। भागलपुर में राधाकृष्ण सहाय के नेतृत्व में एक पत्रिका निकाली गयी- ‘सप्तम स्वर’। कांता सुधाकर लगातार उसमें लिखती रहीं।
टेलिफोन विभाग से सेवानिवृत्ति के बाद वे भागलपुर से मधुपुर चले आए। उनके जीवन में एक दुखद घटना घट गई थी। उन्होंने अपनी बेटी की शादी भागलपुर स्थित मिश्र परिवार में की थी। थोड़े दिनों बाद बेटी और दामाद में अनबन शुरू हुई। दामाद बेटी को मारने-पीटने लगा। बात इतनी बढ़ गईं कि बेटी की मुक्ति के लिए भागलपुर के साहित्यकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बैठक की और एक संगठन बनाया- महिला उत्पीड़न विरोधी मोर्चा जिसका मुझे संयोजक बनाया गया। भागलपुर की सड़कों पर सैकड़ों साहित्यिक उतरे। बहुत मुश्किल से दामाद से मुक्ति मिली और वे परिवार सहित मधुपुर आ गए। देश के कोने कोने में बहुत से साहित्यकार हैं जिनके योगदान की कोई चर्चा नहीं होती। उनमें सुधाकर जी और कांता सुधाकर भी हैं। समाज बड़े लोगों के योगदान से कम, सामान्य लोगों के कर्म पर ज़्यादा जीता है।

 

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डॉ योगेन्द्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)
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