ब्रह्मानंद ठाकुर
बचपन में यह कहावत खूब सुनता था। परिवार के बड़े बुजुर्ग अपने छोटे बच्चों को दुलराते-पुचकारते एक कहानी कहते थे। उसी कहानी का एक अंश है आज के ठाकुर का कोना का उपरोक्त शीर्षक। तब मैं इस कथन का निहितार्थ कहां समझ सका था? फिर जयशंकर प्रसाद की कामायनी के श्रद्धा सर्ग में पढ़ने को मिला —
‘प्रकृति के जीवन का शृंगार,
करेंगे कभी न बासी फूल।
मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र,
आह उत्सुक हैं उनकी धूल।
पुरातनता का यह निर्मोक,
सहन करती न प्रकृति पल एक
नित नूतनता का आनन्द
किए हैं परिवर्तन में टेक।’
प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त ने भी लिखा —
‘द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र’
तब समझा, पुरातन का मोह नूतन के सृजन में बाधक होता है। वह सृजन पहले विचारों का होता है, फिर समाज का। पुरातन को पूरी तरह त्याग कर ही नूतन की स्थापना होती है। यही प्रकृति का नियम है। यह काम आसान नहीं है। पुरातन के मोह से ग्रस्त लोग हर युग में नूतन सृजन के मार्ग में बाधक रहे हैं। बाबजूद इसके नूतन का सृजन होता रहा है। कुर्बानी चाहे जितनी देनी पड़े। आदि काल से आधुनिक काल तक की विकास यात्रा पर नजर दौड़ाइए। समझ जाइएगा। अब देखिए न, पुरातन सामंती समाज व्यवस्था की कब्र पर नूतन पूंजीवादी व्यवस्था की स्थापना भी तो अपने समय का नूतन सृजन ही था। सामंती समाज व्यवस्था में अधिकांश लोग भू-दास थे। जमीन से बंधे थे। गुलाम थे। भू-दासों को किसी तरह की स्वतंत्रता नहीं थी। ऐसे में तत्कालीन समाज को प्रगति के पथ पर ले जाने के लिए पूंजीवाद अपार सम्भावनाएं लेकर आया था। उस दौरान सामंतों ने बदलाव के वाहकों पर बड़े-बडे जुल्म किए, सामाजिक बहिष्कार किया।यातनाएं दीं। विज्ञान और वैज्ञानिक सोच का पुरजोर विरोध किया। फिर भी वे नूतन सृजन की राह कहां रोक पाए? पूंजीवाद ने समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का नारा देकर गुलामों, भू-दासों को मुक्त कराया। उनको व्यक्तिगत रूप से स्वतंत्र कराया। ज्ञान-विज्ञान की तरक्की हुई। बड़े-बड़े कल-कारखाने और उद्योग धंधे स्थापित हुए। यह सब करने में विज्ञान और वैज्ञानिक चिंतन का अहम योगदान रहा। पूंजीवाद एक प्रगतिशील ताकत बन गया। उसने पुरानी भाव-धारणाओं का विरोध करना शुरू किया। पुरातन को नष्ट करो, नूतन को अपनाओ। कला-साहित्य, दर्शन-विज्ञान, न्याय-नीति, विचार सहित जीवन के तमाम क्षेत्रौं में नूतन सृजन की होड़ मच गई। सामंती व्यवस्था ने अपने हित में विज्ञान की जिस प्रगति को रोक रखा था, वह बाधा दूर हो गई। विज्ञान का चक्र फिर प्रगति के पथ पर चल पडा। समय बीतने के साथ पूंजीवाद भी अपना प्रगतिशील चरित्र खो चुका है। वह अपने ही द्वारा स्थापित समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आदर्शों का गला घोंट रहा है। जिस पूंजीवादी व्यवस्था ने विज्ञान की प्रगति का द्वार खोला था, वही आज विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास में बाधक बन चुका है। अंधविश्वास और अवैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा दे रहा है। अपसंस्कृति और नैतिक मूल्यों में गिरावट का दौड़ चरम पर है। वैज्ञानिक संसाधनों की जरूरत आज हर किसी को है, लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण की नहीं। जाहिर है ,पूंजीवाद अपना प्रगतिशील चरित्र खो चुका है।अब यह समाज का भला नहीं कर रहा है। इसका एकमात्र विकल्प है समाजवादी समाज व्यवस्था की स्थापना ,जो पूंजीवाद के खात्मे से ही सम्भव है। वोट से सरकारें बदल कर यह ऐतिहासिक दायित्व पूरा नहीं किया जा सकता।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)
