निंदक दूरे राखिए ,लाठी-सोंट दिखाय

कभी रहीम खानखाना ने लिखा था ,निंदक नियरे राखिए ,आंगन कुटी छवाय / बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।

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ब्रह्मानंद ठाकुर

कभी रहीम खानखाना ने लिखा था ,निंदक नियरे राखिए ,आंगन कुटी छवाय / बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय। उनके समय में समाज को शायद इसी की जरूरत रही होगी। क्योंकि कोई भी कवि , लेखक,साहित्यकार ,दार्शनिक और विचारक अपने वर्तमान को केन्द्र में रख कर ही अपना मशविरा देता है। अपनी बात जन-जन तक पहुंचाता है । यह बात दीगर है कि भविष्य के लिए भी उससे कुछ रोशनी निकल जाती है। बड़े से बड़े चिंतक और महापुरुषों ने भी अपने चिंतन में स्थान और काल की सीमा को पार नहीं किया। महात्मा बुद्ध ने भी नहीं।उन्होंने भी समता , स्वतंत्रता और बंधुत्व की बात इस रूप में नहीं कही ,जिस रूप में पूंजीवाद ने अपने शुरुआती दिनों में कह कर इसे एक समाज व्यवस्था के रूप में स्थापित किया था। भले ही आज वह स्थिति नहीं है। लब्बो लुआब यह कि मनुष्य के चिंतन की भी एक सीमा होती है। बड़ा से बड़ा क्षमतावान व्यक्ति भी एक सीमा तक ही प्रासंगिक हो सकता है। रहीम ने भी अपने समय की मानव जाति को उसके भले के लिए एक मंत्र दिया —‘निन्दक नियरे राखिए।’ मतलब निन्दा करने वाले को ,अपनी बुराई बताने वाले को ,आलोचना करने वाले को पूरा सम्मान करिए।इससे आपके नैतिक और चारित्रिक गुणों का विकास होगा। सोद्देश्य निन्दा वह रामबाण औषधि है जिससे मनुष्य का दुर्गुण क्षण मात्र में छू मंतर हो जाता है। फिर तो उसके आचरण और व्यवहार में उत्तरोत्तर विकास होने लग जाता है।खैर, छोड़िए। यह तब की बात है, जब कवि रहीम जैसों का जमाना था। आज जमाना पूरी तरह बदल चुका है। बदलना स्वाभाविक भी है। परिवर्तन के क्रम को कोई अबतक रोक सका है जो हम और आप रोकेंगे !
अब तो ‘जब जैसी बहै बयार ,पीठ तब तैसी कीजिए ‘ का जमाना है। ऐसे में किसी की निन्दा और बुराई करना अपने पैर में कुल्हाड़ी मारने जैसा है। निन्दा शब्द से मेरा तात्पर्य किसी के दुर्गुणों का उल्लेख करने, सरकार की जनविरोधी नीतियों और कार्यक्रमों पर बेबाक अपनी राय रखने , शोषण ,अन्याय और अत्याचार का मुखर विरोध करने से है। लेकिन ऐसा करने का परिणाम क्या हो रहा है ? इसे समझने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं। अपने आस पास ही देखिए। अभी कल तक जो आपका अभिन्न मित्र था ,किसी बात पर आपकी आलोचना सुनते ही वही आपका जानी दुश्मन हो गया। बाप ने बेटे की निन्दा की और वह अपने बाप का धुर विरोधी बन गया।गुरू ने अपने शिष्य की कमियों को उजागर किया कि शिष्य ने अपने गुरू से इसका बदला लेने की ठान ली। निन्दा या आलोचना का सर्वाधिक दंश आजकल जनपक्षीय लेखकों और पत्रकारों , कलाकारों को झेलना पड़ रहा है। चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को याद कर लीजिए। प्रसिद्ध कन्नड़ विद्वान एम एम कुलबुर्गी और पत्रकार गौड़ी लंकेश को तो भूले नहीं ही होंगे ! लज्जा उपन्यास लिखने वाली बांग्लादेश की जानी मानी लेखिका तस्लीमा नसरीन को ही देख लीजिए। हां ,ऐसे बहुत -से लोग भी हैं जिन्होंने समय के नब्ज को पहचान लिया और ‘ जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे / तुम दिन को कहो रात ,तो हम रात कहेंगे ‘ जैसे सूत्र वाक्य को अपने जीवन और लेखन का मूलमंत्र मान लिया है। ऐसे ही लोग आज शोहरत के शिखर पर विराजमान हैं। ऐसे लोगों के लिए मुंशी प्रेमचंद आउट आफ डेट हो चुके हैं ,जिन्होंने मुफलिसी के दिनों में भी तत्कालीन गवर्नर लार्ड माल्कम हेली के रायसाहबी का प्रस्ताव यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि तब सरकार मुझसे जो लिखवाना चाहेगी ,लिखना पड़ेगा। मैं जनता का तुच्छ सेवक हूं।जनता के लिए ही लिखता हूं।जनता की रायसाहबी मिले तो सर आंखों पर। गवर्नमेंट की रायसाहबी की इच्छा नहीं है। ‘जब स्थितियां निन्दक को दूर भगाने की हों तो जनपक्षीय लेखक ,कलाकारों ,पत्रकारों को प्रेमचंद को याद करते हुए कहने की जरूरत है —जनपक्षीय लेखकों ,कलाकारों को सरकारी पुरस्कार ! ना बाबा ,ना।

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