मन की बात

रूहानी मुहब्बत के पीछे भागूँ तो जिस्म अपना हक़ लेकर बैठ जाता है

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रूहानी मुहब्बत के पीछे भागूँ तो जिस्म अपना हक़ लेकर बैठ जाता है। जिस्मानी मुहब्बत को ज़माना अधूरी मुहब्बत कहता है। दिल अरसे से कुछ तलाशता फिर रहा है। आँखें बन्द करो तो वो अनजाना सा “कुछ” खुशबू सा बनकर साँसों में घर कर जाता है।एक बार मैंने नानी की साड़ियों के बक्से में एक रेशमी लिफ़ाफ़े में बंधी हुई कस्तूरी निकाल कर सूँघ ली थी, तो नकसीर फ़ूट गयी थी, वैसी ही खुशबू.. मायावी सी, रहस्यमयी सी- जो मन को भाती भी हो और उसे जज़्ब करने की औकात भी न हो। आँखें मूँद कर मुहब्बत को महसूस करने की कई बार कोशिश की..एक बार तो यूँ लगा जैसे कैलाश मानसरोवर की ऐसी घाटी में अकेले विचर रही हूँ, जहाँ धूप अठखेली कर रही हो, चरवाहा बकरियों को हाँक लगा रहा है, हरी घास की कालीन और उस पर सफेद बर्फ के कशीदे कढ़े हों। बाँसुरी की तान के साथ ऊपर चोटियों में जाती जा रही हूँ और एक पल ऐसा आता है, जब मैं निर्जन भयंकर हिमालय में बर्फ के तूफ़ान के बीच हूँ। वह मनोरम घाटी नीचे छूट गयी है लेकिन इस तूफ़ान के बीच एक व्यक्ति मेरी ओर पीठ करके खड़ा है। उसके होने के अहसास में वही कस्तूरी है।मन उसे देख भर लेने की जिजीविषा में युग काट दे।
मन तो सहवास में भी मुहब्बत ढूँढता है  जबकि दोनों का बहुत दूर तक ख़ास नाता नही है। सच यही है कि उस वक़्त शरीर केवल करन्ट दौड़ता नंगा तार होता है और शरीर का हर हारमोन, हर इन्द्रिय एक इन्द्रिय की भूख और बेचैनी खत्म करने के लिए एकजुट हो जाती है। मुहब्बत का अहसास लेने को जिस्म या दिमाग को फुर्सत कहाँ होती है।सहवास केवल सहवास होता है और उन पलों में इंसान और पशु बस रसायनों की गिरफ़्त  में होते हैं। एक नशा… गुबरैले या मेंढक में भी इंसानों जैसे ही होता होगा।  जैसे ही जिस्मानी भूख खत्म होती है, नंगा जिस्म सबसे हास्यास्पद लगने लगता है और लैंगिक क्रियाएँ मूर्खता। मुहब्बत में दीवानगी दिखाने वाले करवट लेकर सो जाते हैं ताकि कल फिर नई भूख और नई खोज के लिए मन तैयार रहे ।कुछ हासिल कर चुकने के नशे में धुत मन में मुहब्बत तब कहाँ होती है?
मन कभी तो मुझे जैसे घुटनों पर बुकईयां चलता नटखट बालक लगता है, जिसके आगे ज़मीन पर उसकी माँ ने ढेरों खिलौने फैला दिए हों ताकि वह व्यस्त रहे। अगर बच्चा खिलौनों के बीच है तो वह लगातार उनसे उलझा ही रहेगा। खिलौने बदल-बदल कर खेलता रहेगा।इंसानी मन मुहब्बत हासिल करने के लिए किरदार ढूँढता रहता है, लगातार…..शायद तब तक, जब तक बर्फीले तूफ़ान में पीठ करके खड़े वह किरदार पलट कर मुस्कुरा न दे और उसके लिए अपनी बाँहें न फैला दे-जो बिलकुल असामान्य नही है।
गुलाब,तोहफे, ग़ज़ल, गीत, बेवफाई, तलाक, शादी,चुम्बन, सहवास, वादे, रिश्ते……..कुछ भी मुहब्बत की शुरुआत या अंत नही…बस उस बर्फीली घाटी के सफर आने वाली छोटी घटनाएं हैं, जो खुद मुक़म्मल मुहब्बत नहीं हैं।
कोई यह बोले कि मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ या करती हूँ तो मुझे सुनाई देता है -“मैं तुमसे मुहब्बत चाहता हूँ या चाहती हूँ और यही सही है। लैंगिक चरम को मुहब्बत  मान लेने की भूल ही उसकी उम्र को सहवास जितनी छोटी बना देता है।
आँखें मूँदती हूँ तो आवाज़ों की चिल्लमपों है ज़ेहन में। किसी का चुम्बन, किसी का प्रेमपत्र, किसी मर्द  का औरत के  स्तनों को छूना, मर्द का यौनातुर लिंग, दो कामातुरों का सहवास, हँसी, नस काटी हुई कलाई,दुल्हन की मांग भरते हुए दूल्हे की चुटकी और इन सब खिलौनों के बीच से एक बरगद बढ़ता जाता है लगातार और मिनटों में भयंकर बड़ा हो जाता है। ये सब खिलौने वेताल बन कर उसमें उलटे लटके होते हैं और मैं अब भी थकी हारी, भूखी प्यासी कुछ मुहब्बत सा ढूँढ रही हूँ।
भले कुछ पल मिलें ज़िन्दगी में, जब कुछ और पाने की चाह न हो, आँखें मूँदने पर फिर वही चरवाहे की बाँसुरी की धुन हवा में तेरे लेकिन ऐसी धुन- जिसे मैं सुन भी सकूँ और जिसमे कस्तूरी सी मादक लेकिन तेज़ खुशबू भी हो। खुशबू वाली धुन….!!!
मुहब्बत चाहिए मुझे क्योंकि ज़िन्दगी और इसकी सतही ख्वाहिशें मुझे वेताल लगती हैं। एक ऐसा चक्रवात, जो उलटा हो। नीचे चौड़ा और बर्बादी मचाने वाली तूफ़ानी ताकत समेटे हुए जो ऊपर बढ़ता जाएऔर सिमटता जाए और सिमटते सिमटते एक बिंदु में समा जाये। वहीं कस्तूरी महकेगी और तूफ़ान के बीच मेरी तरफ पीठ करके खड़ी ख्वाहिश मुझेपलट कर देखेगी भी और मेरे अंदर स्पिरिट की ठंडक पसर जायेगी। हाँ! मुहब्बत उस दिन हासिल मानूँगी, अगर यह होती है तो……
अंशु रत्नेश त्रिपाठी
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