डॉ योगेन्द्र
सलिले हंस हंसे कमलम् कमले तिष्ठति सरस्वति यानी सलिल अर्थात् जल में हंस है, हंस में कमल है और कमल में ज्ञान की देवी सरस्वती है। कमल पर विराजती श्वेतांबरा सरस्वती खूबसूरत लगती है, आनंदित भी करती है। सरस्वती का प्यारा कमल आजकल मणिपुर में ग़ज़ब ढा रहा है। वैसे तो दो वर्षों से मणिपुर हिंसा के लिए चर्चा में रहा है, लेकिन वहाँ से एक प्रिय खबर है कि लोकटक झील में कमल के लाखों फूल खिले हैं। मणिपुर की हिंसा पर बहुत बातें होती रहती हैं। फ़िलहाल हमलोग कमल की बातें करे। लोकटक झील 40 वर्ग किलोमीटर की है और कमल के फूलों से भरी है। पूरी झील में तैरती झाड़ियाँ और मिट्टी है। इस झील से 45 गाँवों को रोज़गार मिला है। कमल के फूल और उसके तने से आधारित उद्योग खड़े किये गये हैं। इससे एक बड़ा फ़ायदा यह हुआ है कि मछलियों की संख्या भी अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है। इस झील की एक ख़ासियत यह है कि यहॉं विलुप्तप्राय प्रजाति के संगइ हिरण पाये जाते हैं। दुख की छाया में जो सुख पल्लवित-पुष्पित होता है, वह और भी आनंददायक होता है।
एक बहुत ही प्यारी खबर लंदन से है। वहाँ बुजुर्गों के लिए ‘पीएम फ़ार्मेसी’ खुली है। यहाँ उदासी और अकेलेपन का इलाज कविताओं से होता है। लोग यहॉं आते हैं, अपनी कविताएँ सुनाते हैं, उस पर संवाद करते हैं। इसके संस्थापक डेब अल्मा कहती हैं कि कविता एक ऐसी कला है जो मन की सर्वोच्च अवस्था में विकसित होती है, फिर चाहे वह अवस्था ख़ुशी की हो या फिर दुख, उदासी, दर्द की। ये कविताएँ बुजुर्गों को मानसिक पीड़ा से उबार सकती है। कविता के अलावे यहाँ दर्शन और मनोविज्ञान की किताबें भी पढ़ी जाती है। कमल के सौंदर्य और कविता के सौंदर्य में अभूतपूर्व संगम है। कमल तो मन को मोहता है और उसे उदात्त बनाता है। वैसे ही कविताएँ मन को विस्तार देती है और वासनाओं से मुक्त कर उदार बनाती हैं।
मणिपुर की हिंसा को राजनेता दूर नहीं कर सकते। मैतई और कूकी समूहों को उदार बना कर ही मणिपुर में सद्भाव ला सकते हैं। कोई ट्रंप, कोई नेतन्याहू, कोई पुतिन और कोई मोदी दुनिया में शांति नहीं ला सकते, बल्कि कहिए कि ये दुनिया को अशांत कर सकते हैं। शांति के लिए कविताएँ, फूल, दर्शन ही चाहिए। एक नेता से ज़रूरी है एक कवि, दार्शनिक या मनोवैज्ञानिक। लोग पचास मंज़िला मकान बना लेता है और फिर उसमें पौधे और फूल लटकाने लगता है। प्रकृति उसे चाहिए, क्योंकि उसका जन्म प्रकृति से है और मृत्यु के बाद उसी प्रकृति में मिल जाना है। मृत्यु के बाद पचासवें मंज़िल से नीचे आना है और नीचे ही जलना है या कब्र में सोना है। जो प्रकृति के साथ जितना क़रीब है, उसमें ज़िंदगी उतनी ही लहलहाती रहती है। आदिवासियों के नृत्य और गीत का सौंदर्य देखिए तो अनुमान और अनुभव होगा। सरसराते पत्तों पर गिरती बारिश की बूँदों या औंस की बूँदों का अहसास कीजिए। कंक्रीट के घरों में हम बंद हो सकते हैं, लेकिन आज़ादी तो झील, सागर, जंगल, पहाड़, पौधों के मध्य ही है। प्रकृति अहंकार मुक्त करती है और इंसान को इंसान। दुनिया को आज नेता नहीं, इंसान चाहिए।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)