न्यायपालिका के फैसले और सामाजिक दरिंदगी

समाज और न्याय व्यवस्था की स्थिति

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डॉ योगेन्द्र
एक अखबार के पिछले पन्ने पर दो खबरें हैं जो समाज और न्याय व्यवस्था की स्थिति को उजागर करती हैं। पहली खबर इलाहाबाद हाईकोर्ट से जुड़ी है। जस्टिस राम मनोहर मिश्र ने 11 साल की बच्ची के संदर्भ में फैसला सुनाया है कि बच्ची के निजी अंग पकड़ना और नाड़ा तोड़ना दुष्कर्म की कोशिश नहीं है। आखिर दुष्कर्म क्या है? जब तक बलात्कार न कर लिया जाए? ऐसे लोग जज हैं। वे दुष्कर्म की नयी-नयी परिभाषाएँ गढ़ रहे हैं। बच्ची का निजी अंग पकड़ना और पैजामे का नाड़ा तोड़ना दुष्कर्म नहीं है? क्या जज महोदय की बेटी के साथ भी कोई ऐसा काम करें तो वह दुष्कर्म होगा या नहीं होगा? ये लोग लोकतंत्र कहाँ ले जाएँगे? बच्ची का निजी जीवन कुछ नहीं है? मर्दवादी समाज में समाज तो बिगड़ा हुआ है ही, न्यायपालिका भी ऐसी ही हो जाएगी? बच्ची और उसके पिता कहाँ जायें? क्या वे हथियार उठा लें या आत्महत्या कर लें? उसी कोर्ट के एक जज ने कहा था कि समाज बहुसंख्यक के अनुसार चलेगा। यानी अगर आप बहुसंख्या में हैं तो संविधान कुछ कहे, आप कुछ भी कह सकते हैं, कर सकते हैं। यह तो जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली बात हो गई। इस नियम के अनुसार गाँव में बहुसंख्यक हिन्दू है तो कानून उनके अनुसार और मुस्लिम बहुसंख्यक हैं तो उनके अनुसार। थोड़ा आगे बढ़ें। जिस जाति की संख्या ज्यादा होगी, वह दूसरे पर अपना कानून चलायेगी। न्यायपालिका के जज क्या इस तरह के फैसले और बयान देंगे? कभी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला सुनाकर नयी मिसाल कायम की थी। लेकिन वही हाईकोर्ट संविधान की भावनाओं के अनुरूप भी फैसले नहीं कर पा रहा।
दूसरी घटना मेरठ की है। पति सौरभ राजपूत लंदन में काम करते थे। पत्नी मुस्कान घर पर रहती थी। दोनों से पाँच साल की बेटी भी है। लेकिन सीमाओं का उल्लंघन करते हुए मुस्कान साहिल शुक्ला से प्रेम करने लगी। दो साल बाद जब सौरभ राजपूत मेरठ लौटा तो प्रेमी साहिल शुक्ला और मुस्कान ने मिलकर सौरभ राजपूत को न केवल मारा, बल्कि उसके 15 टुकड़े कर सीमेंट के घोल में डाल दिया। आये दिन इसके अलावे भी बहुत सी खबरें आती रहती हैं, न केवल मारने की, बल्कि काट कर फ्रिज में रखने या जमीन के नीचे गाड़ देने तक की। हम क्या एक बर्बर युग में रह रहे हैं? समाज कहाँ खड़ा है और हम सब क्या कर रहे हैं? अगर संबंध बुरे हो जायें। साथ रहना असहनीय हो जाए तो अलग हो जाना चाहिए। इतनी क्रूरता और बर्बरता! जो राजनेता हैं, उनमें से कई पर हत्या और बलात्कार के आरोप हैं। हम उसकी दबंगई के लिए टिकट देते हैं और वे टिकट प्राप्त कर संसद या विधानसभाओं में पहुँच जाते हैं। यानी हम उनके बलात्कार और हत्या के आरोप को आरोप नहीं मानते। इससे समाज में संदेश जाता है कि हत्या और बलात्कार करना कोई अजूबा बात नही है। सच पूछिए तो आम आदमी डर गया है। उसका किसी पर भरोसा नहीं है। पुलिस पर तो पहले भी नहीं था और अब एक-एक संस्था पर से भरोसा उठता जा रहा है। जिस तरीके से शासन चल रहा है, उसमें यह भरोसा बढ़ने के बजाय घटता ही जाएगा। अगर ऐसे ही फैसले और सामाजिक घटनाएँ बढ़ती चली गई तो फिर हम सब बंद गली के आखिरी मकान में बंद होंगे।

 

Justice Ram Manohar Mishra
डॉ योगेन्द्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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