डॉ योगेन्द्र
जिंदगी कितनी ऊबड़ खाबड़ हो जाती है, इसका अहसास कई बार हुआ। बीते दिन भी। शरीर के किसी हिस्से में दर्द होता है और उम्मीद से ज्यादा होता हो तो मन में उदासी तो छाती ही है, जिंदगी को लेकर बहुत सारे ख्याल आते हैं। पूरी जिंदगी नाचने लगती है और अनेक घटनाएँ प्रत्यक्ष होने लगती हैं। अपनी गलतियों और अच्छाइयों के दस्तावेज के पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं। यहाँ तक कि युधिष्ठिर से किये गए प्रश्न भी। यक्ष ने अनेक प्रश्न पूछे थे जिसमें यह भी पूछा था कि संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया था कि हर दिन लोग मरते हैं, लेकिन तब भी लोगों के मन में संसार में बने रहने की इच्छा होती है, इससे बड़ा आश्चर्य क्या होगा? संसार की क्षणभंगुरता को जानते हुए भी बने रहने की कामना दुख का सबसे बड़ा कारण है। खैर। मन में बहुत सारे प्रश्न आते हैं। आत्म पीड़ा भी होती है। यक्ष जब सभी प्रश्नों के उत्तर से संतुष्ट हुआ तो उसने प्रसन्न होकर कहा कि वह मरे हुए भाइयों में से एक को जीवित कर देगा। युधिष्ठिर ने कहा कि आप प्रसन्न ही हैं तो नकुल को जीवित कर दें। यक्ष ने तब पूछा कि तुम्हारा सहोदर भाई तो अर्जुन और भीम है, इनमें से किसी एक को क्यों नहीं चुनते? तब युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि उनके पिता को दो पत्नियाँ थीं- कुंती और माद्री। दोनों मेरी माँ थीं। मैं कुंती का बड़ा पुत्र जीवित हूँ, इसलिए माद्री के बड़े पुत्र नकुल को भी जीवित रहना चाहिए।
जीवन में पाना बहुत महत्वपूर्ण नहीं होता, त्यागना महत्वपूर्ण होता है। मैंने महसूस किया है कि किसी का काम कर जितनी खुशी होती है, उतनी कुछ पाकर नहीं होती। मुझे जब काम करने के अवसर मिले और विश्वविद्यालय में अफसर बना तो मैंने उस वक्त लक्ष्य निर्धारित कर लिया कि सभी की भलाई करनी है। उस वक्त जो भी मेरे पास आया, उसके लिए अच्छा करने का प्रयास किया। सत्य के लिए अड़ा भी, मौके पर जो मुझसे नाराज रहता था, उसके भी काम किए। बावजूद इसके महसूस करता हूँ कि कहीं-कहीं भूलें हुई हैं। बचपन में गुल्ली, थपका, सूत, नेमनचूस आदि खरीदने के लिए घर से पैसे चुराता था। ज्यादा पैसे का मामला नहीं था, आना, दो आना, चार आने का मामला था, लेकिन था तो चोरी का ही। पिता गुस्साते। मैट्रिक तक आते आते ये आदतें चली गई। शायद किताबें पढ़ते। ईमानदारी का भूत चेतना पर चढ़ कर बैठ गया। मुल्ला प्याज खाता है टाइप से मेरी आदतों में शामिल हो गया, इसके चलते मैं कभी-कभी अनमनीय हो जाता रहा हूँ। नौकरी और आजादी के द्वन्द को भी भोगता रहा हूँ। नौकरी आजादी के बहुत कुछ हिस्से को खा जाती है, लेकिन अगर नौकरी नहीं करता तो बहुत कुछ मिस भी करता। इस द्वन्द का नतीजा था कि मैं एक पटरी पर कभी नहीं चला। नये नये रास्ते ढूँढने और सपने देखने की आदत सी हो गई। नौकरी छोड़ी, पकड़ी। फिर विश्वविद्यालय में नौकरी को लेकर स्थिर हो गया। यहाँ थोड़ी आजादी थी। काम करने की संभावना भी। जितनी क्षमता थी, उतनी तो निश्चित तौर से किया। जब बहुत कुछ समझ रहा था और बेहतरीन काम कर सकता था, तब सेवानिवृत्त हो गया। जो भी हो, आज तक संघर्षरत हूँ। पूरी जिंदगी जीवंत रहे, धड़कती रहे, सुवासित रहे।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)