व्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक जिम्मेदारी

समाज के प्रति जिम्मेदारी और सामाजिक प्रतिबद्धता

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ब्रह्मानंद ठाकुर
किसी भी सभ्य समाज में स्वतंत्रता की एक सीमा होती है। यह सीमा वहीं तक है, जहां किसी दूसरे की स्वतंत्रता पर आंच न आए। जिस स्वतंत्रता में सामाजिक जिम्मेदारी का बोध न हो, समाज के प्रति प्रतिबद्धता न हो, वैसी स्वतंत्रता समाज को गर्त में ले जाती है। सुदूर अतीत में मानवतावादियों ने समाज के प्रति व्यक्ति का फर्ज निभाने के लिए ही व्यक्ति को स्वतंत्र करने की जरूरत महसूस की थी। तब स्वतंत्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं था, मनमौजीपन नहीं था। तब सामाजिक प्रतिबद्धता रहित स्वतंत्रता की कोई अवधारणा नहीं थी। आज पूंजीवादी व्यवस्था के दौर में स्वतंत्रता सम्बंधी वह धारणा बिल्कुल बदल गई है। व्यक्ति की समाज के प्रति जिम्मेदारी और सामाजिक प्रतिबद्धता का लोप हो गया है।
स्वतंत्रता पर हावी कुत्सित व्यक्तिवाद ने व्यक्ति को सामाजिक जिम्मेदारी से अलग-थलग कर दिया है। एक तरह से व्यक्ति केन्द्रित निरंकुशता पैदा हो गई है। स्वतंत्रता के नाम पर लोगों में यह आम धारणा पैदा हो गई है कि जैसे भी हो, अपनी स्वतंत्रता का उपयोग करो। चाहे इससे दूसरे को जितनी भी असुविधा क्यों न हो, कोई परवाह नहीं। यह सब लिखते हुए मुझे अचानक दिनकर की एनार्की कविता की कुछ पंक्तियां याद आ जाती है —
और, अरे यार! तू तो बड़ा शेर-दिल है / बीच राह में ही लगा रखी महफ़िल है/ देख लग जाएं नहीं में पर के झटके/ नाचना जो हो तो नाच सड़क से हट के!
इसपर स्वतंत्रता का निरंकुस भाव से उपयोग करने वाले क्या जवाब देते हैं, वह भी पढिए—
सड़क से हट तू ही क्यों न चला जाता है/ मैटर में बेड बड़ी शान दिखलाता है/ झाड़ देंगे तुझे में जो तड़क-भडक है/ रोकने चला है, तेरे बाप की सड़क है। ऐसी स्थितियों से लोगों को अक्सर सामना करना पड़ता है। कहा जाए तो स्वतंत्रता के नाम पर एक तरह से व्यक्ति केन्द्रित निरंकुशता पैदा हो गई है। आज स्वतंत्रता के नाम पर ऐसी आम धारणा बन गई है कि जैसे भी हो आनन्द मनाओ, मौज -मस्ती करो, बीच चौराहे पर मजमा लगाओ, रास्ता रोको। यहां तक कि किसी की हत्या करने में भी यदि आनन्द मिले तो करने से कोई गुरेज नहीं। यही है पूंजीवादी समाज की स्वतंत्रता सम्बंधी अवधारणा। इसी वजह से सर्वत्र मानवीय मूल्यों में तेजी से गिरावट हो रही है। आज व्यक्ति की जरूरत, व्यक्ति का हित ही सर्वोपरि है। आज हर कोई कुछ ऐसा पाने या करने की कोशिश में लगा हुआ है जिसमें सफल हो जाने से उसके परिवार, समाज और राष्ट्र पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा इसकी कोई चिंता नहीं है। यही है स्वतंत्रता के नाम पर उग्र निरंकुशता जो आज पूरे समाज को गर्त दिशा में ले जा रहा है।

 

Individual freedom and social responsibility
ब्रह्मानंद ठाकुर
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)

 

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