तनवीर जाफ़री
लोकसभा चुनावों से पहले यानी जुलाई 23 में 15 दलों के साथ बने उसी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन अर्थात यूपीए ने इण्डिया गठबंधन नामक एक नया विपक्षी गठबंधन बनाने का प्रयास शुरू किया था। परन्तु इस बार इसमें 15 राजनैतिक दल नहीं बल्कि 26 पार्टियां शामिल हुई थीं। इण्डिया गठबंधन के अस्तित्व में आते ही सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की नींदें उड़ गयी थीं। सबसे पहले तो भाजपा नेता काफी दिनों तक इण्डिया गठबंधन (भारतीय राष्ट्रीय विकासशील समावेशी गठबंधन) में INDIA नाम के शामिल होने पर ही शोर शराबा करते रहे। उसके बाद जिस भाजपा ने दस वर्षों तक अपने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सहयोगियों की कभी बैठक बुलाने की जरुरत महसूस नहीं की थी उसी भाजपा को इण्डिया गठबंधन के मुकाबले राजग /NDA की भी पहली बार बैठक बुलानी पड़ी। उधर इण्डिया गठबंधन पर सिर मुंडाते ही ओले तब पड़ने लगे जबकि इण्डिया गठबंधन के अगुआकारों में सबसे अग्रणी भूमिका निभाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार स्वयं ही इण्डिया गठबंधन छोड़ भाजपा से ही गलबहियां कर बैठे। परन्तु इसके बावजूद 2024 में आये चुनाव परिणाम ने यह सन्देश जरूर दे दिया कि यदि विपक्ष पूरी ईमानदारी व एकता के साथ सत्ता को चुनौती देगा तो निश्चित रूप से परिणाम चौंकाने वाले होंगे।
परन्तु इस हकीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इसी इण्डिया गठबंधन में कुछ दल ऐसे भी शामिल हैं जिनके गठबंधन में शामिल सबसे बड़े दल कांग्रेस से बुनियादी वैचारिक मतभेद भी हैं। और समय-समय पर यह मतभेद उभर कर सामने आते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना का अयोध्या मंदिर /मस्जिद विषय तथा सावरकर जैसे मुद्दों को लेकर विशेषकर कांग्रेस व अन्य समाजवादी दलों के साथ मतभेद का प्रश्न? इसी तरह बंगाल में ममता बनर्जी का गठबंधन में शामिल वामदलों को सहन न कर पाना। जबकि कांग्रेस द्वारा पूरी ईमानदारी से गठबंधन धर्म निभाते हुये व बड़ा दल होने के नाते भी बड़े दिल का सुबूत देते हुये हरियाणा से लेकर बंगाल व बिहार झारखण्ड तक वामपंथियों को समझौते के अनुसार प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की जाती रही है।
इसी तरह देश का सबसे नया राजनैतिक दल यानी आम आदमी पार्टी भी समय-समय पर खास तौर पर सीटों के बंटवारे को लेकर सार्वजनिक रूप से गठबंधन की फूट को उजागर करने का काम करती रही है। पंजाब, हरियाणा से लेकर दिल्ली, हिमाचल व गुजरात तक यही देखा जा रहा है। और पिछले दिनों ऐसे समय में जबकि दो महीने बाद ही फरवरी 25 तक दिल्ली विधानसभा की घोषणा की संभावना है इस वातावरण में जबकि इण्डिया गठबंधन को पूरी तरह संगठित नजर आना चाहिए था बजाये इसके दिल्ली में गठबंधन के दोनों ही प्रमुख सहयोगियों कांग्रेस व आप में तलवारें खिंच गयी हैं। पिछले दिनों कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा चुनाव को लेकर दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार और साथ ही भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के खिलाफ ‘श्वेत पत्र’ जारी किया। इसी दौरान कांग्रेस नेता अजय माकन ने कई ऐसे आरोप लगा दिये जिससे आप नेता तिलमिला उठे। माकन ने कहा कि ”पहले केजरीवाल को समर्थन देना गलती थी और गठबंधन करना भी भूल थी। केजरीवाल भरोसे के योग्य नहीं। उनकी कोई विचारधारा नहीं है। केजरीवाल ‘फर्जीवाल’ हैं वे राष्ट्र विरोधी हैं।” राष्ट्रविरोधी शब्द से आप तिलमिला उठी और जवाब में आप नेताओं ने कांग्रेस से अजय माकन पर कार्रवाई करने की मांग की। साथ ही यह चेतावनी भी दी कि अगर कांग्रेस ऐसा नहीं करती है तो आम आदमी पार्टी, इंडिया गठबंधन के नेताओं से मांग करेगी कि कांग्रेस को इंडिया गठबंधन से हटाएं।”
इंडिया गठबंधन में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना भी कांग्रेस वामपंथियों व अन्य गांधीवादी व समाजवादी विचारधारा रखने वाले दलों के साथ शामिल है। परन्तु यह साथ भी पूरी तरह अवसरवादी है। क्योंकि उद्धव ठाकरे की शिवसेना 6 दिसंबर की अयोध्या घटना का श्रेय भी लेना चाहती है, स्वयं को उस घटना का अगुवाकार भी बताती है। इसी तरह सावरकर को लेकर शिवसेना (उद्धव) के विचार इंडिया गठबंधन में शामिल अन्य दलों से अलग हैं। शिवसेना (उद्धव) सावरकर को हीरो बताती है जबकि इंडिया गठबंधन में शामिल अन्य दल इन दोनों ही मुख्य मुद्दों पर शिवसेना (उद्धव) से मतभेद रखते हैं। दूसरी और इन्हीं दोनों मुद्दों पर भाजपा व शिवसेना (उद्धव) के मत एक समान हैं। गोया वैचारिक व सैद्धांतिक समानता शिवसेना (उद्धव) व भाजपा में है न कि शिवसेना (उद्धव) व कांग्रेस या इंडिया गठबंधन में शामिल अन्य दलों में। इसलिए इस तरह का गठबंधन निश्चित रूप से सत्ता हथियाने का अवसरवादी खेल है न की सिद्धांतवादी राजनीति का हिस्सा।
उधर ममता बनर्जी व उनकी तृणमूल कांग्रेस तथा समाजवादी पार्टी जैसे बड़े क्षेत्रीय दल इंडिया गठबंधन में शामिल तो जरूर हैं परन्तु लोकसभा, विधानसभा व उपचुनावों के दौरान प्रत्याशी घोषित करते समय कांग्रेस पार्टी व ऐसे क्षेत्रीय दलों के बीच जिस समय रस्सा कशी होती है और मतभेद उभरते दिखाई देते हैं उससे भी साफ पता लगता है कि विभिन्न दल साथ-साथ तो जरूर हैं परन्तु सभी की कोशिश यही रहती है कि किस तरह अपने आधार का और अधिक विस्तार करें और अपने सहयोगी दल को जितना हो सके पैर पसारने से रोकें। उधर क्षेत्रीय दल जिस तरह गठबंधन के समय भाजपा से भयभीत रहते हैं उसी तरह कांग्रेस के विस्तार का भय भी उन्हें सताता है। उधर यह भी सच है कि जिन-जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत रहे हैं प्रायः वहां दक्षिणपंथी ताकतों को मुंह की खानी पड़ी है परन्तु ठीक इसके विपरीत जहाँ-जहाँ कांग्रेस के साथ भाजपा का सीधा मुकाबला रहा है वहां वहां प्रायः भाजपा ने कांग्रेस से सत्ता छीन ली है। इसलिये क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता से भी हरगिज इंकार नहीं किया जा सकता। साथ ही यह भी सत्य है कि अवसरवाद पर आधारित गठबंधन टिकाऊ हरगिज नहीं हो सकता। लिहाजा यदि देश को अतिवादी शक्तियों से बचाना है और भारत की पहचान बन चुकी गांधीवादी नीतियों व सिद्धांतों को आगे बढ़ाना है तो इण्डिया गठबंधन में शामिल सभी दलों में वैचारिक एकता होनी तो जरूरी है ही साथ ही यह गठबंधन अवसरवाद पर आधारित हरगिज नहीं होना चाहिये।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)