सरकार पंचगव्य पर ध्यान दे तो पूरे विश्व में पंचगव्य चिकित्सा की होगी धूम
देश की विरासत में भारतीय गोवंश और पंचगव्य चिकित्सा
वृंदावन से अश्वनी कुमार की रिपोर्ट –
सरकार पंचगव्य पर ध्यान दे तो पूरे विश्व में पंचगव्य चिकित्सा की होगी धूम। भारत प्राचीन काल से असीम संभावनाओं का देश रहा है। भारत के लोग इसे महसूस करें ना करें लेकिन पश्चिमी दुनिया के देश एवं वहां के बुद्धिजीवी वर्ग इसे भली-भांति जानते, मानते और समझते हैं। आजादी के समय तक भारत की जनसंख्या से कहीं ज्यादा भारतीय देसी वंश गोवंश था अर्थात कम से कम एक आदमी पर एक देसी गाय थी। जबकि आज स्थिति ऐसी हो गई है कि 140 करोड़ की जनसंख्या में मुश्किल से शुद्ध नस्ल की गायों की संख्या लगभग ढाई से तीन करोड़ रह गई है। 2019 के आंकड़ों को माने तो भारत में कुल दुधारू पशुओं की संख्या लगभग 13 करोड़ के आसपास थी। ऐसे में हमारे नवजात दूध मुंहे शिशुओं को भी दूध मिलना मुयसर्र नहीं रहा। जबकि इसी देश में कहा जाता है कि “दूधों नहाओ पूतों फलो”। स्थिति की गंभीरता एवं बद से बदतर होते हैं हालात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गूगल सर्च से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि भारत मे दूध की प्रतिदिन औसत खपत 64 करोड़ लीटर है और शुद्ध दूध का उत्पादन मात्र 14 करोड़ लीटर होता है। तो यह बड़ा ही गंभीर प्रश्न है कि आखिर 50 करोड़ लीटर दूध आता कहां से है और इसका स्वास्थ्य पर हम भारतीयों के स्वास्थ्य पर कितना घातक असर हो रहा है।
पंचगव्य विद्यापीठम के डॉ. निरंजन वर्मा और डॉ. कमल ताओरी जी का इस संबंध में कहना है कि अगर भारत के निवासियों को फिर से निरोगी और दीर्घायु होने की दिशा में आगे बढ़ना है तो कम से कम “एक नागरिक-एक देशी गाय” के लक्ष्य तक बढ़ना ही होगा। इसके बिना आयुष्मान भारत की कल्पना मात्र कोरी कल्पना के अलावा कुछ भी नहीं हो सकता है।
जिस देश की विरासत में भारतीय गोवंश और ऊर्जा से भरे हुए इसके गव्य एवं गव्य से बने उत्पाद रहे हैं उस देश में आज कुपोषण के हालात दुनिया भर में बद-से-बदतर होते चले जा रहे हैं।
राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण 2019 के आंकड़े इन बातों की पुष्टि करती है।
- 6 से 23 महीने की उम्र के केवल 42 फीसदी बच्चों को ही पर्याप्त अंतराल पर जरूरी भोजन मिल पाता है।
- 5 साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर प्रति 1,000 बच्चों पर 37 है, जिसमें 69 फीसदी मौतें कुपोषण के कारण होती हैं।
- भारत में कम वजन वाले शिशुओं के मामले में दुनिया में पहले स्थान पर है।
- संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 19.5 करोड़ आबादी कुपोषण का शिकार है।
गब्यसिद्ध डॉ. विशाल कुमार ने कहा कि हमारे भारतीय देसी नस्ल की गायों के दूध, दही, छाछ, मक्खन और घी इत्यादि में कितनी ऊर्जा और ताकत है कि व्यक्ति जल्द बीमार ही नहीं पड़ सकता है। अगर बीमार पड़ता भी है तो वह पंचगव्य की औषधीयों द्वारा कम-से-कम समय में पूर्ण स्वास्थ्य को प्राप्त हो सकता है। क्योंकि बीमारियों का एक मूल कारण शरीर में आवश्यक पोषक तत्वों की कमी है। जब ये पोषक तत्व हमारे शरीर में घट जाते हैं तो शरीर वातावरण से लड़ने में सक्षम नहीं हो पता है फलस्वरूप अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो जाता है। वहीं दूसरी तरफ कृषि में अंधाधुंध प्रयोग हो रहे हैं रासायनिक खादो एवं कीटनाशकों ने बीमारियों को पूरे सम्मान के साथ हमारे घरों में आमंत्रित किया है और अब ये बीमारियां के रूप में यह अतिथि अब हमारे घरों से जाने का नाम नहीं ले रहे हैं। विशाल कुमार एवं उनकी पूरी टीम इस कार्य में लगी हुई है की महासम्मेलन में आने वाले लोगों को रसायन मुक्त भोजन की प्राप्ति हो। इसके लिए सभी लोग वृंदावन के आसपास के इलाकों में उन किसानों के पास जा रहे हैं जो देसी गायों के द्वारा कृषि कार्य करते हैं। अपने पाठकों को बताते चलें कि भारत में हजारों वर्षों से पूरा का पूरा कृषि कार्य गायों पर आधारित रहा है और यहां की मिट्टी दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा उपजाऊ रही हैं। इस बात की चर्चा राजीव दीक्षित जी ने ब्रिटिश दस्तावेजों में दर्ज आंकड़ों एवं जानकारी के आधार पर की है।
जब भारत में शिक्षा और समृद्धि के गुरुकुल व्यवस्था थी तो गायों का विशेष महत्व था। यहां तक कि उस समय का समाज गाय के बिना जीवन में स्वाद, स्वास्थ्य, कृषि इत्यादि की कल्पना भी नहीं कर सकता था। अंग्रेजों के आने से पूर्व तथा उसके बाद भी पूरे भारत में गुरुकुलीय व्यवस्था थी। उन गुरुकुलों का एक बड़ा संसाधन देसी गाय एवं गोवंश था। उन्हें गुरुकुलों के कारण भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में सिर्फ स्थान पर थी। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजी संसद में 1813 और इसके कुछ वर्षों के बाद तक भारत दुनिया के कुल उत्पादन का 43%, विश्व के कुल निर्यात का 33% और दुनिया की कुल आमदनी का 27% अर्जित करता था।
इस पंचगव्य महासम्मेलन को जानने और समझने के उद्देश्य से गया, बिहार, बाराचट्टी में सहोदय गुरुकुल की संस्थापिका रेखा कुमारी भी आई हैं। जहां वह अपने पति एवं अन्य मित्रों की सहायता से अपने गुरुकुल के बच्चों को देसी गाय का पालन, गाय के गोबर और गौमूत्र से जैविक खाद और कीटनाशक तैयार करना सिखाती हैं। उनके गुरुकुल के बच्चे अपने भोजन में गाय द्वारा प्राप्त शुद्ध दूध, दही, छाछ इत्यादि का सेवन करते हैं और स्वस्थ रहते हैं। इसके अलावे वहां पर के बच्चों को बिहार सरकार की शिक्षा की तर्ज पर विषयों की जानकारी दी जाती है। व्यवहारिक रूप से पर्यावरण संरक्षण, जैविक खेती, बीज संरक्षण, गाँव के विकास इत्यादि बातों की जानकारी दी जाती है। लेकिन अगर सरकार को भारत के निवासियों को फिर से निरोगी और दीर्घायु होने की दिशा में आगे बढ़ना है तो कम से कम “एक नागरिक-एक देशी गाय” के लक्ष्य और पंचगव्य चिकित्सा पर ध्यान देने की जरुरत।