किसानो के साथ नाइंसाफी आखिर कब तक?

राष्ट्रीय किसान दिवस

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ब्रह्मानंद ठाकुर
कल राष्ट्रीय किसान दिवस था। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के जन्म दिन को किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस देश के किसानों का दुर्भाग्य कहिए कि जिन किसानों के लिए किसान दिवस मनाया जाता है, उनको ही नहीं पता कि उनके नाम पर भी कोई दिवस है। वैसे अपने देश में बाल दिवस, मजदूर दिवस, महिला दिवस, वृद्ध दिवस, युवा दिवस जैसे अनेकों दिवस मनाए जाते है। इस दिन उनकी बेहतरी की बातें कहीं जाती है। बाबजूद इसके उनके हक में होता क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। कल का राष्ट्रीय किसान दिवस भी इसी तरह बीत गया। इस दिन कोई किसान संगठन या किसी राजनीतिक दल ने सेमिनार या विचार-गोष्ठी आयोजित कर किसानो को उनकी दुर्दशा का मुख्य वजह बताने की जरूरत नहीं समझी। आखिरकार किसान के घर पैदा होने वाला, खेती-किसानी का अनुभव रखने वाला एक संवेदनशील कलमकार इससे निरपेक्ष कैसे रह सकता है? आज ठाकुर का कोना बता रहा है किसानों की बदहाली का मुख्य वजह। भूमंडलीकरण के बाद जहां देश में धन कुबेरों की संख्या लगातार बढ़ रही है, वहीं देश के किसानों की हालत दिन प्रतिदिन बद से बद्तर होती जा रही है। हरित क्रांति के बाद किसानों ने अपनी मिहनत से खाद्यान्न के मामले में न केवल देश को आत्मनिर्भर बनाया बल्कि निर्यात की स्थिति में ला दिया। यहीं किसान आज अपनी न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के लिए तरस रहे हैं। उनके लिए खेती अब लाभकारी नहीं रहा, एक मजबूरी बन गई है। किसानों के बच्चे खेती-बाड़ी का पुश्तैनी पेशा त्याग कर मजदूरी के लिए महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। बढ़ता उत्पादन लागत और उसके अनुपात में फसलों का लाभकारी मूल्य का नहीं मिलना, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं से फसल नुकसान की भरपाई न होना किसानों की बदहाली का मुख्य कारण है। खेती के लिए उन्नत बीज और उर्वरक जरूरी है। सरकार ने बीज बाजार को अपने नियंत्रण से मुक्त कर दिया है।
आज बीज बाजार पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का एकाधिकार है। उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी लगातार कम होते जाने से उर्वरकों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। उर्वरकों की कालाबाजारी तो आम बात है। चालू रबी मौसम में फसलों की बुआई के समय डीएपी का घोर अभाव रहा। डीएपी एक फास्फेटिक उर्वरक है। फसल बुआई के समय किसानों को इसकी बड़ी आवश्यकता होती है। इस बार डीएपी के लिए किसानों को अधिक कीमत चुकानी पड़ी है। दूसरी तरफ कृषि उत्पाद बाजार पर सरकारी नियंत्रण नहीं रहने के कारण किसानों को अपनी फसल बिचौलिये व्यापारियों के हाथ औने-पौने दाम पर बेचना पड़ता है। भूमंडलीकरण के बाद नव उदारवादी नीतियों के कारण कृषि उत्पादन लागत मे जो वृद्धि हो रही हैं, उसकी भरपाई स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुरूप समग्र उत्पादन लागत पर 50 प्रतिशत जोड़ कर सभी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य देकर ही की जा सकती है। केन्द्र सरकार ने वर्तमान खरीफ मौसम के लिए धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2300 एवं 2320 रुपये निर्धारित है। बिहार में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान क्रय के लिए व्यापार मंडल और पैक्स को अधिकृत किया गया है। इन दोनों एजेंसियों की क्रय व्यवस्था काफी लचर है। फसल तैयार होने के काफी समय बाद क्रय प्रक्रिया शुरू होती है। किसानों को भुगतान के लिए लम्बा इंतजार करना होता है। लिहाजा छोटे, मझोले और बटाईदार किसान लाचार होकर अपनी उपज एमएसपी से काफी कम कीमत पर बिचौलिये को बेंच देते हैं। ऐसे में कैसे दूर होगी उनकी बदहाली?

 

How long will this injustice continue with farmers
ब्रह्मानंद ठाकुर

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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