डॉ योगेन्द्र
सुबह टहलने निकला तो हवा ने देह पर ठंड की बारिश की। लगा जैसे हवा ठंड से लदी हुई है। आसमान की ओर देखा। सूरज मिरमिरयाया हुआ था। महसूस होता था कि उसे भी कुहरे ने जकड़ रखा है। प्रकृति में सूरज के पास जितनी गर्मी है, उतनी किसी के पास नहीं है। हर ग्रह नक्षत्र तक आदमी जाने की कोशिश कर सकता है, लेकिन सूरज के पास जाने का दुस्साहस कोई नहीं कर सकता। इतना बलशाली सूरज भी आज बेबस है। पेड़ भी ठिठुरन महसूस करते हैं। उनकी पत्तियाँ ठंड से या तो सिकुड़ गयी हैं या फिर पीली हो रही हैं। गुलमोहर तेज गर्मी में भी नहीं हारता, लेकिन ठंड में पराजित सा लगता है। नीम की पत्तियाँ पीली होकर झड़ने ही वाली हैं। इतनी ठंड में भी कोई मोटरसाइकिल वाला इतनी तेज़ी से मोटरसाइकिल चलाता है कि डर लगता है। वैसे राँची आम ज़िंदगियाँ सरल हैं। व्यवहार भी नेक है। हर शहर का अपना मिजाज होता है, बावजूद इसके एक सामान्य प्रवृत्ति उभर रही है और वह है आर्थिक गैर बराबरी से उपजी प्रवृत्ति। बाजार अपना चेहरा दैत्याकार बनाता जा रहा है। एक अनजानी ह्रदय को छेदनेवाली प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इंस्टेंट फूड की तरह अमीर बनने के लिए इंस्टेंट रास्ते ढूंढे जा रहे हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ यह जानती है, इसलिए ऐसी चीजें लांच करती है जिसमें लोभी- लालची फस जायें। लोगों को लगता है कि कोई ऐसा व्यक्ति जो मोटर साइकिल पर सवार था, आज दुनिया के बड़े पूँजीपतियों में गिना जाता है तो वह क्यों नहीं हो सकता? इसलिए वह उल्टे सीधे धंधे में शामिल हो जाता है। आदमी से नफरत करने लगता है।
पश्चिम देशों में इस्लामोफोबिया और यहूदियों के प्रति तीव्र विरोध है। इसमें एक नया ट्रेंड जुड़ा है- इंडोफोबिया। पश्चिम दुनिया में भारतीयों के प्रति घृणा बढ़ी है। कनाडा में भारतीयों को देख कर बस कंडक्टर बस नहीं रोकता। अगर बस स्टैंड पर सिर्फ भारतीय हैं तो बस आगे बढ़ जाती है। श्वेत कहीं भी दिख जाए। बस रोक दी जाती है। सोशल मीडिया पर भी भारतीयों का मजाक उड़ाया जाता है। दरअसल पश्चिमी देशों में भारत से बहुत लोग रोजगार या पढ़ाई के लिए पहुँचे। वहाँ उन्होंने धन अर्जित किया और एनआरआई बने। एनआरआई मतलब न्यूली रिच इंडियंस। इन्होंने स्थानीय लोगों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। वे प्लेन में भी चलते हैं तो जोर-जोर से मोबाइल पर बातें करते हैं और सामान्य व्यवहार नहीं करते। आस्ट्रेलिया में अभी क्या हुआ? क्रिकेट के मैदान पर विराट कोहली का व्यवहार कितना तुच्छ था। जान बूझकर एक जूनियर आस्ट्रेलियाई प्लेयर को धक्का देना क्या दर्शाता है? पैसे से मिजाज इतना खराब हुआ कि वे देश को भूल कर लंदन में बसने के बारे में सोच रहे हैं। जिस देश ने उनको शिखर पर पहुंचाया, उसे छोड़ने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी। जो भी हो। नफरत या घृणा दुनिया का इलाज नही है। यह एक बीमारी है। जिस देश या समाज में यह बीमारी प्रवेश कर जाती है, उसमें घुन लग जाती है। द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर की घृणा ने तबाही मचा दी थी। हम आज भी बाज नहीं आए हैं। नफरत विभिन्न रूपों में हमारे आस-पास पसर रही है। इसकी पहचान और इससे मुक्ति का रास्ता तलाशना चाहिए।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)