मजबूर माँ और दैत्याकार कंपनियाँ

अब सरकारें कंपनियों पर निर्भर हो गई

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डॉ योगेन्द्र
समय को पहचानना जरूरी है। हम बहुत बार समय की आह और कराह को झुठला देते हैं। अररिया जिले की एक माँ ने अपनी नाबालिग बच्ची को देह व्यापार पर धकेलने की कोशिश की। वह पकड़ी गई और कोर्ट ने उसे सजा दी। यह खबर डरावनी नहीं है? पचहत्तर वर्ष के लोकतंत्र में एक माँ अपनी बच्ची को देह व्यापार करवाने के लिए क्यों आमादा है? कोई कारण तो होगा? एक माँ इतनी मजबूर और अनैतिक कैसे हुई कि अपनी कोख से जनी बच्ची को बेचने पर मजबूर हुई? कोर्ट ने माँ को सजा दी। वह तो प्रत्यक्ष तौर से गुनाहगार है ही, मगर इसके पीछे और कोई गुनाहगार है या नहीं? दुनिया तो माँ को ही कोसेगी, मगर माँ ऐसी दशा में कैसे पहुँची, इसका पता कौन लगाएगा? एक ही दुनिया में रहते हुए किसी के पास ऐय्याशी के तमाम साधन मौजूद हैं तो किसी के पास खाने का ठिकाना नहीं है। जिन लोगों ने इसे टिकाए रखा है, क्या वह गुनाहगार नहीं है? हम ऐसी दुनिया कैसे बना सकते हैं जिसमें किसी के पास जीने के संसाधन नहीं हैं और कोई एक दिन में हजार करोड़ कमा रहा है।
इसी दुनिया में मेटा, अमेजन, फ़ोर्ड, वॉलमार्ट, मैकडोनाल्ड, हार्ले डेविडसन जैसी कंपनियों ने निर्णय लिया है कि वे विविधता, समानता और समावेश का पालन नहीं करेंगी। वे कमजोर वर्गों के युवाओं को नौकरियाँ नहीं देंगी। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक तरफ अमेरिका फर्स्ट का नारा दे रहे हैं तो दूसरी तरफ रोजगार और शिक्षा में समान अवसर देने के लिए आंदोलन भी चल रहे हैं। ऐसी कंपनियाँ सरेआम कह रही हैं कि वे सामाजिक और सांस्कृतिक जागरूकता के लिए कोई प्रायोजन नहीं करेंगी। अश्वेत कर्मचारियों के कैरियर बनाने का प्रोग्राम खत्म कर दिया है। समानता इंडेक्स में भी वे हिस्सेदार नहीं होंगी। अब कंपनियाँ किसी सरकार की दया पर निर्भर नहीं हैं। बल्कि अब सरकारें कंपनियों पर निर्भर हो गई हैं, इसलिए वे एक समानांतर सरकार बन गई हैं और अपना सिक्का चलाने लगी है। उनका लक्ष्य जन कल्याण नहीं, मुनाफा है। सरकार वोट से बनती है, लेकिन कंपनियाँ पूंजी से बनती है। आज न कल यह सच्चाई सभी सरकारों और जनता को समझना है। जो सरकारें विदेशी निवेश के आधार पर रोजगार और विकास का दंभ भरती हैं, वे या तो अज्ञानी हैं या मजबूर हैं या जानबूझकर जनता के खिलाफ साजिश रच रही है। उपरोक्त कंपनियों ने अपनी घोषणा कर दी है। वे जनता को लूटने के लिए तत्पर हैं। वे सरकारों को इतना मजबूर कर दे रही हैं कि उसके अनुरूप सरकार को कानून बनाना पड़ रहा है। दुनिया में कंपनियाँ इतनी मजबूत हो गई हैं कि कहीं पर मस्क तो कहीं पर अडानी की तूती बोलती है। लोकतंत्र को इन लोगों ने पूंजीतंत्र में बदल दिया है। जनता का घर और ह्रदय खोखला हो रहा है और वे किंकर्तव्यविमूढ़ होती जा रही है। हमें इस सच्चाई को समझना है और एक नयी दुनिया के सृजन में लगना है जिसमें हरेक मनुष्य के लिए स्पेस हो। परेशानी यह है कि हम सब भी इसमें उलझते जा रहे हैं और वैकल्पिक दुनिया के बारे में नहीं सोच पा रहे। अब गांधी तो आ नहीं सकते जिनके पास शैतानी सभ्यता से टकराने की हिम्मत और ताकत थी, लेकिन हम सब उनके विचारों का अनुसरण तो कर ही सकते हैं।

government has become dependent on companies
डॉ योगेन्द्र

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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