सोने की लंका से लड़ते-लड़ते हम सोने के शौचालय तक आ गए हैं। सोने की लंका तो राख हो गयी पर सोने का शौचालय आज भी मौजूद है। हर घर शौचालय की सुविधा सदियों बाद हिंदुस्तान को नसीब हुई। जब शौचालय ही नहीं था तो सोने के शौचालय की कल्पना क्या की जा सकती है? पर वह कल्पना अब हकीकत बन गयी है। मोदीजी ने सोने का शौचालय खोज निकाला है। उन्होंने ही देश को सूचना दी है कि दिल्ली में सोने का शौचालय है। यह सुनकर मन गार्डन-गार्डन हो गया। यह सूचना आज हमें गर्वित कर रही है। आने वाली पीढ़ी भी याद रखेगी कि हमारे पूर्वज के पास सोने का शौचालय हुआ करता था। कितना गर्व का विषय होगा। हमारी आत्मा को शांति मिलेगी।
वैसे राजा का सम्बन्ध तो महल से ही है। बिना महल का राजा क्या? बिना महल का किसी लोकशाही की भी कल्पना नहीं की जा सकती। हम लोगों का बचपन तो राजा रानी का किस्सा सुनकर ही गुजरा। एक था राजा और एक थी रानी की कहानी आपने सुनी ही होगी? राजा रानी के प्रति आकर्षण आज भी सनातन बना हुआ है। हमें राजा चाहिए, चाहे जैसा भी हो। राजा के बिना हम जिन्दा ही नहीं रह सकते। अगर कोई ईमानदार नेता सामने आ जाए तो उन्हें उपहार में हार ही मिलती है।
इंद्र और उनके आसन को लाख हम हिलाते रहे पर वह हिल नहीं पाया। किला और महल को लेकर संघर्ष सभ्यता की शुरुआत से ही हो गया था जो आज भी जारी है।
लोकतंत्र में महल और शीशमहल की जब बात होती है तो लोजपा की झोपड़ी नजर आने लगती है। लोकतंत्र में यह आम अपेक्षा रहती है कि जब करोड़ों लोगों को झोपड़ी नसीब नहीं हो तो राजा को शीशमहल में नहीं रहना चाहिए। पर सत्ता का सम्बन्ध तो सिंहासन से होता है किसी कुत्तासन से नहीं। सत्ता सुंदरी चौराहे पर नहीं रहती। इसे महल क्या, शीशमहल चाहिए।
राम का रामराज्य भी अयोध्या के राजमहल से ही शुरू हुआ। वनवास के दौरान राम का कोई शपथ ग्रहण थोड़े ही हुआ था। गाँधी ने भी अपने रामराज्य के लिए नेहरू जैसे चमकते सितारे का ही चयन किया था। फकीरी का रास्ता तो झोपड़ी की तरफ ही जाता है। अमीरी का रास्ता महल की ओर जाता है।
किसी को ‘बुद्ध बेटा’ नहीं ‘राजा बेटा’ चाहिए। बुद्ध भी तब बुद्ध हो पाया जब वह कभी सिद्धार्थ था, एक राजकुमार था। बुद्ध अगर राजकुमार नहीं होता तो उनके त्याग को कौन देखता और कौन उन्हें सुनता? प्रभाव की कोख से पैदा हुई सादगी ही शृंगार बनती है। अभाव की कोख से पैदा हुई सादगी मजबूरी कहलाती है। और मजबूर नेतृत्व न तो अपना भला कर सकता है न ही मुल्क का भला कर सकता है। इतिहास से प्रेरणा पाकर ही मोदी और केजरीवाल राजा बनने और दिखने के जुगाड़ में हैं।
आज दिल्ली महलों की लड़ाई में उलझ गयी है। तेरा महल मेरा महल आज बीच बहस में है। कौन कितना बड़ा अय्याश है, इसका आकलन इस चुनावी सफर में किया जा रहा है। मोदी जी गरीब घर का बेटा होकर भी पीएम बन गए। मोदी का पीएम हो जाना और अमीर हो जाना दोनों दो बातें हैं। और आज जिस ठाठबाट से मोदीजी रह रहे हैं वह लोगों को खलता अवश्य है। पर यह ठीक नहीं है चिढ़ना।
मोदी फ़कीर हो जाएंगे और झोला लेकर निकल जाएंगे, बात यह हजम नहीं हो रही है। मोदी जी सत्ता में आकर झोला लेंगे और चोला बदलेंगे पर केजरीवाल झोला लेकर सत्ता में आएंगे। इन्हें सत्ता में बने रहना है और अपने साम्राज्य का विस्तार करना है। गजब तमाशा चल रहा है। भाजपा और आम आदमी पार्टी ने फर्जी लड़ाई में लोकतंत्र को उलझा दिया है। त्याग क्या दिखाना? त्यागी उपनाम से भी काम चल जाता।
काश दिल्ली का चुनाव किसी गंभीर विषय पर लड़ा जाता तो शेष देश में बड़ा सन्देश जाता, पर ऐसा नहीं हो रहा है। यह राजनीतिक उदंडता की पराकाष्ठा ही है। एक पाखंडी दूसरे पाखंडी से लड़ता दिख रहा है। समर में जीत के लिए दाँव पेंच की भी एक सीमा होती है। पर इस निर्लज्जता का क्या कहना?
भाई! केजरीवाल या मोदी से कौन कह रहा है कि आप लोग भीखमंगा वाला जीवन जीये लेकिन मुल्क को तो भीखमंगा नहीं बनाये। खूब राजा वाला जीवन जीयो पर देश के रंकों को भी तो देखो? सच तो यही है कि पब्लिक इनके पायदान भर है। सत्ता के इन बहेलियों से जनता कोई सवाल भी नहीं करती है। यथा प्रजा तथा राजा जैसी स्थिति है। कौन पूछेगा कि क्या कह कर आये थे और क्या कर रहे हो?
जब तक जनता इनका कालर नहीं पकड़ेगी तब तक झांसा और जुमला ये लोग फेंकते ही रहेंगे। स्थिति यहां बड़े मियां और छोटे मियां की है। जनता सुभान अल्ल्हा! शिकारी आएगा दाना डालेगा और लोभ से उसमें फंसना नहीं का गीत जनता गा भी रही है और फंस भी रही है। ‘कोउ हो नृप, हमें ही हानि’ की बात स्वीकारनी होगी।
गरीबी की गोद में पलकर अमीरी की गोद में बैठ जाना यह तो गोद का रूपांतरण भर है। इसमें पुरुषार्थ क्या है? गरीबी की गोद से अमीरी की गोद में आकर जब गरीबी मिटा देते हैं तब पुरुषार्थ घटित होता है। वर्तमान पॉलिटिक्स में इस पुरुषार्थ का बड़ा अभाव दिखता है। यह बहुत ही अफसोसजन है।
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