डॉ योगेन्द्र
कल जब मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन उतरा तो सवा नौ बजे रात हो चुकी थी। वहाँ से कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय जाना था जो चंद्रशेखर भवन के नाम से जाना जाता है। ई-रिक्शा आजकल बिहार के हर शहर में उपलब्ध है। रेल से उतरते ही आपके पीछे कई ड्राइवर लग जाते हैं। निर्धारित जगह के लिए कोई भाड़ा तो तय होता नहीं, सो भाड़े के संदर्भ में मोलभाव शुरू हो जाता है। मुझे लगता है कि जब बड़े-बड़े लोग मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट का मोलभाव करते हैं तो बेचारे ड्राइवर की क्या बात है? वह तो दो पैसे से घर का पेट पालता है। ड्राइवर से बात एक साथी ने किया था। हम लोग चार थे। ई-रिक्शा पर लद गए। रिक्शा चला तो नज़रें भी चलने लगी। सड़क पर बिखरी गंदगी देखकर मैंने कहा भी कि यह शहर तो भागलपुर का भी बाप है। यों यह शहर बूढ़ी गंडक के किनारे बसा है। वज्जि गणराज्य यहाँ क़ायम हुआ था। सोलह महा जनपदों में से एक महत्वपूर्ण महाजनपद था। वैशाली मुजफ्फरपुर के पास ही स्थित है। महात्मा बुद्ध का यह पसंदीदा इलाक़ा रहा है। आज़ादी की लड़ाई में भी इस शहर की अग्रगण्य भूमिका रही है। खुदीराम बोस को मात्र 18 वर्ष में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण मुजफ्फरपुर जेल में फाँसी दी गई। जुब्बा साहनी का भी नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। यहाँ विश्वविद्यालय भी है, लेकिन यह शहर लंगट सिंह कॉलेज के नाम से जाना जाता है। लंगट सिंह की पढ़ाई बहुत कम हुई थी। उन्होंने पहले रेल में मजदूरी से अपना जीवन शुरू किया और अपने जीवन का सर्वस्व कॉलेज के निर्माण में लगाया। दरअसल वे लँगड़े थे। लोगों ने उन्हें लँगड़े से लंगट बना दिया।
मुजफ्फरपुर एक व्यापारिक केंद्र शहर भी रहा है। यहाँ लाह की चूड़ियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं और बहुतायत से बनाई जाती है। लीची तो खैर इस शहर की आत्मा ही है। रात को जब मैं ई-रिक्शे से आ रहे थे तो पहले मुझे प्रफुल्ल चाकी की याद आई। प्रफुल्ल चाकी खुदीराम बोस के दोस्त थे और दोनों ने मिलकर किंग्सफोर्ड नामक अंग्रेज़ पर बम फेंका था। हर शहर के अतीत के साथ वर्तमान होता है। इस शहर का वर्तमान बहुत प्रभावित नहीं करता। इस इलाक़े में कभी कम्युनिस्ट पार्टी का वर्चस्व था। जहाँ मैं ठहरा हूँ, वह सीपीआई का कार्यालय है। यह बहुत बड़ा कार्यालय है, लेकिन इसे लीज़ पर किसी को दे दिया गया है और वह यहाँ वैवाहिक भवन चलाता है। एक लड़ने वाली पार्टी का दफ़्तर वैवाहिक भवन में बदल जाये, इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है? अब ज़मीन पर संघर्ष नहीं है। सभी हवा हवाई है। हाँ, ऐसे लोगों की चिंता बहुत बड़ी होती है। इसी भवन में गंगा बेसिन की समस्याओं पर चर्चा और समाधान के रास्ते सुझाने के लिए सम्मेलन आयोजित है। तीन दिनों तक मंथन होगा। उम्मीद है कि इस सम्मेलन के माध्यम से नदियों की रक्षा के लिए नयी दिशा मिलेगी। यों सुबह जब टहलने के लिए सड़क पर निकला तो घना कुहरा छाया हुआ था। बाँस भर दूर भी कुछ दिखता नहीं था। पर समय के साथ कुहरा छँटता है और नदियों पर छाये संकट का कुहरा भी छँटेगा।
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