कहां है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता?

अभिव्यक्ति की आजादी

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ब्रह्मानंद ठाकुर
अभी तीन दिन पहले हमारा देश 76वां गणतंत्र दिवस बड़े धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मना चुका है। हमारे देश का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था। तभी से हम इस तिथि को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते आ रहे हैं। इस संविधान ने हमें मौलिक अधिकार प्रदान किया है। संविधान के अनुच्छेद 19 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा, जिसके तहत वह किसी भी विचारों अथवा सूचना के आदान-प्रदान में वह स्वतंत्र होगा। वशर्ते कि इससे राष्ट्र की अखंडता और सम्प्रभुता में किसी तरह की आंच न आए। परम्परागत रूप से प्रकाशित अखबारों, सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को जो स्वतंत्रता दी गई है उसे प्रेसकी स्वतंत्रता कहा जाता है। इसके तहत मुद्रित रूप से भी लोगों को अपनी बात कहने का अधिकार है। स्थिति यह है कि आज मीडिया संस्थानो पर कारपोरेट घरानों का कब्जा है और उनका मुख्य उद्देश्य अत्यधिक मुनाफा कमाना भर रह गया है। कहने को तो लोकतंत्र में प्रेस की स्वतंत्रता लोक की आवाज बुलंद करती है, लेकिन आज वास्तविकता कुछ और है। व्यक्तिगत तौर पर जो पत्रकार अपनी इस जिम्मेवारी को निभाने की कोशिश करते हैं, संस्थान द्वारा उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। पिछले कुछ सालों में ऐसे अनेक उदाहरण सामने आए हैं। लोकतंत्र में जनता द्वारा निर्वाचित सरकारें भी प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने से बाज नहीं आती है। कभी इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर प्रेस की स्वतंत्रता छीन ली थी। लोकतंत्र का मतलब केवल चुनावों में जीत हासिल करना भर नहीं होता। लोकतंत्र का दायित्व लोकतांत्रिक मूल्यों और जनभावनाओं की रक्षा करना भी होता है। यह दायित्व विशेषकर सत्ता पक्ष का होता है। जब सत्तापक्ष अपने इस दायित्व को भूलने लगे तो सवाल करना लाजिमी हो जाता है। असहमति के स्वर को दबाना और जनता में भय पैदा करना संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार का उल्लंघन ही कहा जाएगा। देखा जाए तो देश के अनगिनत छात्र -नौजवानों, किसान -मजदूरों और मिहनतकश आवाम की कुर्बानियों के बाद हमें जो आजादी हासिल हुई, उस आजादी से जनमुक्ति का सपना अबतक साकार नहीं हुआ। लोकतंत्र की नींब ही असहमति के साहस और सहमति के विवेक पर टिकी होती है। ऐसे में जब लोक की अभिव्यक्ति की आजादी छिन जाती है, तो बस सिर्फ तंत्र ही बच जाता है। तंत्र यानि प्रशासनिक तानाशाही। आज जायज व लोकतांत्रिक मांगों को लेकर होने वाले किसान, कर्मचारी एवं मजदूर आंदलोनो पर पुलिसिया दमन, रोजगार की मांग को लेकर बेरोजगार युवाओं और परीक्षाओं में धांधली के खिलाफ छात्रों के विरोध प्रदर्शन पर बर्बर लाठी चार्ज स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं कही जा सकती।

 

Freedom of expression
ब्रह्मानंद ठाकुर
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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