डॉ योगेन्द्र
चुनाव, चुनाव, चुनाव। झूठ बोलने की अलग-अलग तरकीबें ढूँढते नेतागण। कौन किससे बेहतर झूठ बोल सकता है। इसके गुण और कौशल जिसके पास होगा, वह सबसे बड़ा नेता होगा। महात्मा गांधी ने सत्य के प्रयोग किये थे, अब असत्य के प्रयोग धड़ल्ले से हो रहे हैं और उसमें भी ऐसे प्रयोग जो परीक्षित हैं। ऐसे लोग लगातार सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं। राजनीति में तो गारंटी है। अगर आपको बढ़िया, चमकदार और विश्वसनीय झूठ बोलने नहीं आता तो कृपा कर राजनीति में नहीं जायें। लेकिन नेताओं पर आप मत गुस्साइए। न उसकी आलोचना, न निंदा। उनका तो धर्म, कर्म, शर्म कुर्सी है। वे प्रतिबद्ध हैं। उनका लक्ष्य तय है। सोचना तो आपको और हमें है कि हम हैं कैसे? जिस राज्य की प्रजा लालची हो, वहा ठग भूखे नहीं मरेंगे। हमें मुफ़्त में कुछ भी मिल जाता है, हम ले लेते हैं। जबकि मुफ्तखोरी ख़तरनाक है। हमारे अंदर कोई हलचल नहीं होता। कोई सिहरन नहीं। यह सही है या ग़लत? मुफ़्त में दे रहा है तो कोई क़ीमती चीज़ वसूलेगा। यह नहीं सोचते। यहाँ कोई मुफ़्त में कुछ नहीं देता। सबका अपनी क़ीमत होती है। राजनेता हमारी कमजोरी जानता है। उसने हमारी नसें पहचान ली हैं और वह उसे दबा रहा है।
मुफ़्तख़ोरी हर वर्ग की आदत हो गई है। उच्च वर्ग के जो लोग हैं, वे भी और निम्न वर्ग हैं तो वे भी। मध्य वर्ग तो जैसे मुंहफाड़े रहता है। वह गिरता है तो कोई ठिकाना नहीं कि कहॉं जाकर थमे और क्रांति का जोश आता है तो उसका भी कोई ठिकाना नहीं। पूँजीपतियों ने बैंक से लोन लिया। चुका नहीं पाया, सरकार ने माफ़ कर दिया। ऐसा नहीं था कि क़र्ज़ चुका नहीं सकता था। चुका सकता था, लेकिन चुकाने की इच्छा नहीं है। सरकार उनकी इच्छा का सम्मान करती है। सरकार के पास इतनी कूबत ही नहीं है कि पूँजीपतियों को अपमानित कर सके। वह उसके लिए लाल कार्पेट बिछाने के लिए चौबीसो घंटे तत्पर रहती है। यह सबसे बड़ी मुफ़्तख़ोरी है। छुपी हुई मुफ़्तख़ोरी। इसमें किसी के कपड़े गंदे नहीं होते। चेहरे पर चमक भी होती है और देश लुट जाता है। देश पर क़र्ज़ पिछले दस वर्षों में 55 लाख करोड़ से बढ़कर दो सौ लाख करोड़ हो गया, लेकिन देश के पूँजीपति दुनिया के पूँजीपतियों से होड़ ले रहे हैं। बैंक को पूँजीपति कह रहे हैं कि क्या करें, लोन चुकाने के लिए पैसा नहीं है और फिर हवाई जहाज़ ख़रीद रहे हैं, हवाई अड्डा ख़रीद रहे हैं, आलीशान भवन बना रहे हैं। अजब करिश्मा है भाई। इतने गरीब पूँजीपति तो कहीं पैदा नहीं लिया।
दूसरी तरफ़ जनता है। उसे कह दो कि पाँच किलो अनाज मुफ़्त में देंगे, लैपटॉप देंगे, स्कूटी देंगे, इतना पैसा देंगे, स्विस बैंक से काला धन निकाल कर तुम्हारे खाते में डाल देंगे, इतने पर खुश। दरअसल भारतीय मन मुफ़्तख़ोरों का मन है। आज़ादी की लड़ाई से जो स्वाभिमान पैदा हुआ था। अपनी नीतियों और चालों से नेताओं ने आम जनता के स्वाभिमान को ही कुतर दिया है। रंगे सियार ने हरेक को अपने रंग में रंग दिया है। जनता देखती है कि फ़लाँ बिना कमाये अमीर हो रहा है तो हम काम क्यों करें? बिना काम किये पैसे दुगुने-तिगुने हो रहे हैं। फंड रेज हो रहा है। तरह-तरह के खेल चल रहे हैं। इस खेल के खिलाड़ी की पौ बारह है। जो भी हो, वे शिकारी हैं और जनता शिकार।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)