पैकेजिंग युग की उलटबांसी

पैकेजिंग युग में डेंटिंग-पेंटिंग का बहुत मूल्य

0 194

डॉ योगेन्द्र

हर न्यूज़ चैनल अपनी खबर की शुरुआत ब्रेकिंग न्यूज़ से करेगा। जबकि उसमें कुछ भी ब्रेक करने के काबिल नहीं रहता है। सामान्य सी खबर को असामान्य ढंग से परोसना आज की फ़ितरत है। जैसे आप सामान्य कपड़े पहनिए, तो आपका सामाजिक बाज़ार मूल्य ना के बराबर होगा। आप सज-धज कर पहुंचें, तो आप पर निगाहें जायेंगी। वैसे ही चमकते पेपर-पन्नियों में कोई भी खाद्य-अखाद्य परोस दें, लोग उसे हलक के नीचे उतारने में गौरव महसूसते हैं। आजकल बाज़ार में डेंटिंग-पेंटिंग का बहुत मूल्य है। मूल से ज़्यादा सूद का वैल्यू बढ़ा है। बाज़ार में छोटी-छोटी दुकानों ने अपनी औक़ात खो दी है। उस दुकान में समान अच्छा है, लेकिन उसका थोबड़ा आकर्षित नहीं कर रहा। सो, ग्राहक उधर नहीं जा रहे। क्योंकि हम पैकेजिंग युग में जी रहे हैं। रिज़र्व बैंक के दो वर्ष डिप्टी गवर्नर रहे विरल आचार्य और प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यम ने कहा है कि भारत में कॉरपोरेट मोनोपॉली है। यानी पाँच बड़े उद्योग घराने- अदाणी, अंबानी, टाटा, भारती एयरटेल और आदित्य बिड़ला नेशनल चैम्पियन’ हैं। ये लोग कह रहे हैं कि भारत सरकार इनके लाभार्थ नियमों- क़ानूनों में संशोधन करती है या नये क़ानून बनाती है। देश को ‘बड़ा और चमकदार’ में बहुत विश्वास हो गया है, इसलिए ‘छोटे और भदेस’ को रगड़ा जा रहा है।
बड़े और चमकदार लोगों के लिए हर क्षेत्र खोल दिया गया है। उनका रथ शान से आगे बढ़ रहा है और उन्हें रोकने-टोकने वाली सारी संस्थाओं को ख़त्म कर दिया गया है। अगर ख़त्म नहीं भी हुआ है तो वह मरगिल्ला कुत्ता हो गया है। सरकार जैसे नचाती है, वैसे ही वे नाचती हैं। लोकतंत्र को ऐसे चलाया जा रहा है कि जैसे सड़क पर घोड़े दौड़ते हैं। लेबर लॉ हाँफ रहा है। उसके नख- दंत सब उखाड़ लिए गये हैं। पूँजी निर्बाध रूप से दौड़ती रही, इसके लिए ज़रूरी है कि उसके रास्ते की तमाम रूकावटें ख़त्म हो जाये। सभी संगठन मृतप्राय है। उसके शरीर से खून खींच लिया गया है। यह इसलिए कि सभी क्षेत्रों में एकाधिकार क़ायम हो। एको अहंम् द्वितीयोनास्ति का भाव हरेक व्यक्ति, परिवार, संगठन और दल में तैर रहा है। पार्टी में एक को चमकाइए, जनता उस चमक के पीछे दौड़ेगी। हरेक चीज, विचार, बाज़ार, व्यक्ति पैकेजिंग के चक्कर में है। हर ओर भीड़ है। हर जगह प्रतियोगिता है। हरेक को लगता है कि कुछ नया करना है। इस चक्कर में अंधी दौड़ चल रही है।
सबकुछ जानते हुए कि यहॉं कुछ भी स्थिर नहीं है। चाँद, तारे, पृथ्वी, सूर्य और तमाम ग्रह परिवर्तनशील है। अगर उनमें बहुत परिवर्तन न भी दिखे तो आदमी तो साक्षात् प्रमाण है। सत्तर-अस्सी वर्ष में उसका सबकुछ उतर जाता है। बचपन जवानी में और जवानी बुढ़ापे में और बुढ़ापा अनजान दिशा की ओर चल पड़ता है। उस दिशा में जिसका कुछ भी अता पता नहीं है। तब भी हमारे अंदर आपाधापी है। सबकुछ पर नियंत्रण और उसे पाने की ख्वाहिश थम नहीं रही। मज़ा यह है कि जिसके अंदर यह ख्वाहिश नहीं है, उसके अंदर भी इसे पैदा कर देना ही विकास और तरक़्क़ी माना जाता है। ख़्वाहिशों के बाज़ार हैं और इन ख़्वाहिशों के व्यापार हो रहे हैं। यह व्यापार बहुत क्रूर है, लेकिन क्रूरता हमारी चेतना का अविभाज्य अंग बनती जा रही है।

food-packaging-era
डॉ योगेन्द्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
Leave A Reply

Your email address will not be published.