डॉ योगेन्द्र
रेल की खिड़कियों से प्रकृति का एक तिलिस्म दिखता है। खेत, खेत में बिछी धान की पातन, उस पर झरती सुबह की पीली मुलायम धूप, पेड़-पौधे और पहाड़ों पर खिले सफेद फूल। देखते-देखते आँखें अघाती नहीं है। लगता है कि यहीं कहीं एक छोटा- सा घर हो। जो भी चिंता- फ़िक्र हो, वह पेड़ों की फुनगियों पर टँगे रहें। अर्जुन की गांडीव की तरह। यों अर्जुन अज्ञातवास में थे। गांडीव के साथ तो रह नहीं सकते थे। गांडीव उनकी पहचान थी और इस पहचान से अज्ञातवास टूटने का भय था। पांचों भाइयों ने अपनी-अपनी पहचान छिपाई। मुझे भी लगता है कि पहचान के साथ नहीं जीना चाहिए। पहचान कई बार नयी स्थितियों से अलग कर देती है और वास्तविकता को पहचानने नहीं देती। आम लोगों की तरह जीना ही वास्तविक जीना है। पहचान बहुत हद तक कृत्रिम बना देती है। यों पांचों पांडव एक नयी पहचान लेकर ही विराटनगर में रहे थे। उनकी अपनी मजबूरी थी। लेकिन हम सब भी एक फेस की तलाश में रहते हैं। मीटिंग आदि में जाता हूँ तो दूसरे दिन के अख़बार को हर प्रतिभागी देखता है और अपना नाम ढूँढता है। अगर नाम है तो ख़ुश होता है और नहीं है तो दुखी हो उठता है। फ़ेसबुक पर अपनी तरह-तरह की भंगिमाओं में लड़के-लड़कियां अपनी तस्वीरें लगाते हैं। बड़े भी जब कहीं की रिपोर्टिंग करता है तो अपनी तस्वीर पहले लगाता है। सभी को अपनी महत्ता की तलाश है।
शहर में बसी आँखों को पहाड़ और पहाड़ों के फूल सुहाने लगते हैं। एक बार पहाड़ों के फूल देखने के लिए गढ़वाल के फूलों की घाटी पहुँचे। हम तीन थे – मैं, अलका और सुकांत। चौदह किलोमीटर पहाड़ों में चलते रहे। इसी रास्ते से हेमकुंड साहिब भी जाया जाता है। सात पहाड़ों के बीच हेमकुंड यानी बर्फ का कटोरा सिखों के लिए पवित्र तीर्थ स्थल है। यहाँ गुरु गोविन्द सिंह आये थे। ऋषिकेश से जब बद्रीनाथ जाते हैं तो रास्ते में गोविन्दपुर आता है। यहाँ से या तो टट्टू लीजिए या पैदल चलिए। चलने को तो हम लोग चल दिये। दिन में सूरज देवता भी सहयोग कर रहे थे। पेड़ों के बीच धूपछाही से गुज़रते और जगह-जगह खाते पीते हमलोग जब घंगारिया पहुँचे तो सूरज पहाड़ों के मध्य छिप गए थे और ठंड उतरने लगी थी। रात में इतनी ठंड थी कि मैं काँपने लगा। रज़ाई पर रज़ाई देह पर डालने के बाद भी ठंड थम नहीं रही थी। सुकांत इस बीच सारा इंतज़ाम करता रहा। दूसरी सुबह पता चला कि फूलों की घाटी अभी खिली नहीं है। एकाध महीने और लगेंगे। दरअसल इस घाटी में पाँच सौ क़िस्म के प्राकृतिक फूल खिलते हैं और कहा जाता है कि हनुमान लक्ष्मण बूटी की तलाश में इसी घाटी में उतरे थे। इस घाटी को भी अंग्रेजों ने ढूंढा था। यहाँ बह्म कमल भी खिलते हैं। गंगोत्री जब जाते हैं तो रास्ते में हर्षिल आता है। वहाँ से भी बह्मकमल देखने जा सकते हैं। हमारे देश में क्या नहीं है, लेकिन संजोने की चेष्टा कम ही है। राजनीति में झगड़े- टंटे करते रहें, लेकिन अपनी ख़ूबसूरत धरोहरों से मुख न मोड़ें। आप जिस भी उम्र में हों, अपने देश का भ्रमण ज़रूर करें। सरकार भी अपनी जनता को भ्रमण के लिए अतिरिक्त छूट दे और उसे मोटिवेट करे।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)