
सरकार द्वारा गाँधी को नमन करने की औपचारिकता कोई धारणा निर्मित नहीं करती है। बेहतर होता कि देश के कोई निर्लज्ज निजाम यहां जाते ही नहीं। राजघाट को खाली छोड़ देते तो शायद राष्ट्रपिता का सम्मान और भी बढ़ जाता! बईमान व्यवस्था में मारकट करते लोग आखिर किस मूँह से बापू को श्रद्धांजलि देने जाते हैं? यह प्रायश्चित करने या मूँह चिढ़ाने की कोशिश है।
बेहया चेहरा किसी एक दल का नहीं है। बल्कि सभी ने अपने-अपने हिस्से के बापू को मारा है और आज भी रोज मार रहे हैं। राजघाट की दलीय औपचारिकता को छोड़िये, यह देश हर पल राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को याद करता है और इनके वलिदान को नमन करता है। बापू का चेहरा सामने आते ही आँखे सजल हो ही जाती हैं। यह कोई औपचारिकता नहीं है देशवासियों की। देश गाँधी से एकात्म महसूस करता है। देश सोचता है कि उनका जो वास्तव में अपना था वो खो गया। संकट में घिरी हुई इस स्वतंत्रता को जब हम देखते हैं तो इस फकीर का चेहरा बार-बार उभरकर देश के सामने आता है। भारत को बचने और बचाने का फिलहाल गाँधी के अलावा और दूसरा मार्ग नजर नहीं आ रहा है।
गुजरात के महान नेता आज देश पर शासन कर रहा है। कल गुजरात ने लोगों के दिल पर शासन किया था। पर साबरमती का पानी बहुत बह चुका है। साबरमती का संत और उनकी शहादत को भी भुलाया और मिटाया जा रहा है। सब कुछ बदल गया है। आजादी के मायने बदल गए हैं। हमारे रहनुमाओं ने अपना रक्त इसलिए नहीं बहाया कि आजादी कारपोरेट के कोठे पर नीलाम कर दिया जाए। मुट्ठी भर लोगों के हाथ में सत्ता, शक्ति और संसाधन कैद हो जाए? इस कथित चकाचौन्ध में आजादी के वे झिलमिलाते सपने आँखों से ओझल हो चुके हैं। कहाँ कहाँ और कैसी आजादी हमारे पास है? जीने की कैसी स्वतंत्रता बहाल है? अपनी बात कहने की आजादी किनके पास है। हजारों लोग बोलने के कारण आज जेल में बंद हैं। ऐसी कठोर कारावास की स्थिति तो पहले भी नहीं थी।
अगर यह सब है तो नाथूराम अभी भी जिन्दा है। नाथूराम कोई निष्पत्ति नहीं है, बल्कि एक प्रक्रिया का नाम है। और वह प्रक्रिया चल रही है। यह रुकने का नाम नहीं लेती।
बाबासाहेब के विरोध की हिम्मत सामने से नजर नहीं आती है पर इनके खिलाफ में वर्गीय-चेतना सक्रिय है। यही स्थिति गाँधी के साथ भी है। एकान्त में भरपेट गाली देने वाले लोग मौजूद हैं। अनपढ़ और जाहिलों की ऐसी फौज खड़ी हो चुकी है कि अब इन्हें गांधी कभी समझ में नहीं आएगा।
बापू के लिए गालियां आज भी मौजूद हैं। बीच बहस में आज भी गाँधी और गोडसे मौजूद हैं। इतने दिन गुजर गए पर संघ परिवार पर लगा यह कलंक मिटता हुआ नहीं दिखता है। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि गाँधी हत्या में ये शामिल थे या नहीं? हो सकता है कि संघ परिवार के लोग इसमें शामिल नहीं होंगे। पर क्या इतने से बात बन जाएगी और गाँधी की शहादत का सम्मान हो जाएगा? चरित्र को छोड़ भी दिया जाए तो भी संघ परिवार का ऐसा कोई चिंतन नहीं है जो इन्हें गाँधी के करीब लाता हो।
मुझे लगता है कि अगर अतीत में भूलें हुई भी हैं तो स्वीकारने में कोई दिक्क़त नहीं है। अगर गाँधी गलत थे तो हिम्मत के साथ सामने आकर बहस करनी चाहिए। गांधी को गलत साबित किया जा सकता है तो आगे आना चाहिए। पाखंड का वक्त नहीं है। समीक्षा होनी ही चाहिए। गाँधी के मूल्यों की देश हित में महत्व नहीं है तो यह भी सामने आके कहिये और नया मूल्य सुझाईये।
शायद ऐसा नहीं होगा। नहीं होगा तो गांधी को अब बोला जायेगा और जीया जाएगा। सारे पाखंड तिरोहित होंगे। गाँधी की शहादत को नमन!