लुप्त हो गये गांव के हस्त शिल्प और कुटीर उद्योग

स्वावलंबन वाले आदर्श को पलीता किसने लगाया

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ब्रह्मानंद ठाकुर

दो दिन पहले मेरे टोले में एक 8-10 साल का लड़का साईकिल के कैरियर पर बांस से बनी चार टोकरियां लादे, बेंचने आया था। मैंने टोकरी की जब कीमत पूछी तो उसने कहा, पापा ने सौ रूपये में बेंचने को कहा है। उसका मतलब था सौ रूपये में एक टोकरी। टोकरी उसके पापा ने बनाई होगी। मैंने चाहकर भी नहीं खरीदा क्योंकि मेरे घर में टोकरी की जगह टीन के गमले का उपयोग होने लगा है। पहले ऐसी छोटी-बडी टोकरियां गांव की जरूरत हुआ करतीं थी। उसके ऊपर गोबर का लेप चढ़ा कर घरों में रखा जाता था। इसके कई उपयोग थे। इसका निर्माण गांव में ही होता था और बिक्री गांव के हाट में। अब ऐसा नहीं है। यह टोकरी प्रकरण लिखते हुए मैं लौटता हूं बीते दिनों की ओर। तब गांव अपनी अधिकांश जरूरतों के लिए आत्म निर्भर था। कुछ जरूरतें गांव के अन्य शिल्पकार पूरा करते थे। परस्पर अन्योनाश्रय सम्बंध था। आजादी आंदोलन के दौरान गांधी ने स्वदेशी और स्वावलंबन का नारा दिया था। तब भारत में कपड़े विलायत से आते थे। सूती कपड़ों के निर्माण हेतु कच्चा माल कपास, भारत से विलायत जाता था। मेरी दादी कहती थी, तब ढाका का मलमल बड़ा महीन होता था। इतना महीन कि बांस की फोफी में उस मलमल का एक जान समा जाए। तब दादी का कथन मुझे अतिशयोक्ति लगा था। दादी यह भी कहती थी कि अंग्रेजों ने उन बुनकरों का हाथ कटवा दिया था। कह नहीं सकता कि उसमें कितनी सच्चाई थी। लेकिन इतना तो जरूर था कि अंग्रेजों के जमाने में पहनने वास्ते वस्त्र के लिए लोग लालायित रहते थे। गांधी जी अपने चम्पारण प्रवास के दौरान इस स्थिति से रू-ब-रु हो चुके थे। यह प्रसंग फिर कभी। तब गांधी जी ने स्वदेशी खादी वस्त्र के उत्पादन पर जोर देते हुए कहा था, ‘जो पहने वह काते, जो काते वह पहने।’
उनका आशय था, हर भारतीय सूत काते और उसी सूत से बुना हुआ कपड़ा पहने। उन्ही के आह्वान पर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और विदेशी कपड़ों की होली जलाने का आंदोलन हुआ था। गांधी के आह्वान ने रंग लाया। घर-घर में महिलाएं और पुरुष चरखे पर सूत कातने लगे। स्कूलों में भी प्रतिदिन आधा घंटा बच्चे सूत काता करते थे।मैंने भी काता है। तब उसका नाम सूत्र यज्ञ हुआ करता था। सूत कातने का साधन तकली और चरखा था। इसके लिए रुई खादी संस्थाओं से मिलती थी। इसके बदले खादी संस्थाएं सूत खरीदतीं। उस सूत से बुनकर कपड़ा बुनते। सूत कातने वालों को सूत की कीमत का भुगतान नगद के साथ-साथ तैयार कपड़े के रूप में भी होता था। हमारे इलाके का मझौलिया गांव ऐसे ही बुनकरों का गांव था। वहां हर घर में हस्तकरघा हुआ करता था। महिलाएं तानी-भरनी का काम करती और पुरुष हस्तकरघा पर कपड़ा बुनते। सुबह से ही करघे के खट खट की आवाज गूंजने लगती थी। इन बुनकरों को धागा खादी भंडार से मिलता था। उनके लिए यह सालों भर का रोजगार था। इससे उनको बर्ष भर रोटी -रोजी मिलती रहती थी। फिर हस्तकरघा की जगह पावरलूम का दौर आया। बुनकरों ने अपना हस्तकरघा बेंच, कुछ कर्ज लेकर पावरलूम स्थापित किया। यह 70के दशक की कहानी है। गांव में पावरलूम तो आ गया, मगर बिजली ही गायब हो गई। तब कैसे चलता पावरलूम ? लिहाजा कपडे का उत्पादन बंद हो गया। गांव के युवा पावरलूम वाला कर्ज का बोझ अपने माथे से उतारने के लिए सूरत और मुम्बई के वस्त्र उद्योग में काम करने के लिए पलायन कर गये। गांव में बच गयीं सिर्फ बूढ़े-बुजुर्ग और महिलाएं। वहां अब करघे की खट-खट सुनाई नहीं देती। पिछले साल अपने लिए एक जोड़ी धोती की तलाश में मैं पूरा गांव घूम लिया लेकिन कहीं धोती नहीं मिली। गांधी जयंती माह में गांधीवादियों का यह नैतिक दायित्व तो बनता ही है कि बापू के स्वावलंबन वाले आदर्श को पलीता किसने लगाया ,इसकी सही पहचान करें।मेरी समझ से यह पलीता तो पूंजीवादी व्यवस्था ने ही लगाया है ,जिसके संचालक कथित गांधीवादी ही रहे हैं।

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