ब्रह्मानंद ठाकुर
अखिल भारतीय शिक्षा बचाओ समिति केन्द्र सरकार की शिक्षा नीति 2020 के विरुद्ध लगातार आंदोलनरत है। सेमिनारों, विचारगोष्ठियों के माध्यम से देश के लोगों को इस शिक्षा नीति के शिक्षा विरोधी, जन विरोधी प्रावधानो से अवगत कराया जा रहा है। इसी सिलसिले में अखिल भारतीय शिक्षा बचाओ समिति ने बीते 3 दिसम्बर को जंतर मंतर पर ‘शिक्षा बचाओ धरना’ आयोजित किया था। इस कार्यक्रम में देश के अनेक प्रतिष्ठित विद्वान, शिक्षाविद और शिक्षक, शामिल हुए। सभी विद्वानों ने एक स्वर से इस नई शिक्षा नीति 2020 को वापस लिए जाने और इसकी जगह जनवादी, धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति लागू करने की मांग की। जादवपुर विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर की चिंता थी कि यह शिक्षा नीति शिक्षा के केन्द्रीकरण, व्यावसायीकरण और निजीकरण का खाका है। उन्होंने कहा कि नीट सहित सभी केन्द्रीय प्रवेश परीक्षाएं कोचिंग और वाणिज्यिक संस्थानों के इशारे पर थोपी जाती हैं। इसे खारिज करने की जरूरत है।
आईएनएसए वैज्ञानिक, कोलकाता विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग के सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष प्रोफेसर ध्रुबज्योति मुखर्जी ने इस शिक्षा नीति के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन का आह्वान करते हुए कहा कि लोग शिक्षा को अधिकार बनाने के लिए लड़ रहे हैं और एनईपी-2020 इसे एक वस्तु बनाने के लिए तैयार है। इस शिक्षा नीति से शिक्षा का धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक आधार नष्ट हो जाएगा। शिक्षा के बड़े पैमाने पर निजीकरण के साथ सार्वभौमिक शिक्षा एक दिवास्वप्न बन जाएगी। अपने देश में सार्वजनीन, नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा की मांग 19 वीं सदी में भारतीय नवजागरण के अग्रदूतों, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, और ज्योति बा फुले ने शुरू की थी। 20 वीं सदी में आजादी आंदोलन के नेताओं का मानना था कि शिक्षा पूरी तरह नि:शुल्क हो और इसका सारा खर्च सरकार द्वारा वहन किया जाए। हमारे देश के आजादी आंदोलन के महानायकों ने शिक्षा को चरित्र निर्माण के साधन के रूप में देखा था। इसलिए उन्होंने समाज से अज्ञानता का अंधकार दूर करने के लिए धर्मनिरपेक्ष, जनवादी और वैज्ञानिक शिक्षा की आवश्यकता महसूस की थी। देखा जाए तो सही शिक्षा हर तरह के शोषण के विरुद्ध एक कारगर हथियार है। आज इसी हथियार को कुंद करने की साजिश की जा रही है। यह अकारण नहीं है। हम जिस व्यवस्था में रह रहे हैं वह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है। यह आज अपने ही ऐतिहासिक नियमों से घोर संकट में है। पूंजीवाद को इसी संकट से उबारने के लिए शिक्षा को पूंजीनिवेश के नये क्षेत्र के रूप में देखा जाने लगा है।
सोवियत समाजवाद के पतन के बाद 90 के दशक से भूमंडलीकरण की शुरुआत हुई। इसी के साथ शिक्षा के क्षेत्र की पुनर्गठन की प्रक्रिया भी शुरु हुई। अपने देश में इसकी शुरुआत 1986 की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाकर की गई। वर्तमान केन्द्र सरकार की शिक्षा नीति 2020 भी इसी भूमंडलीकरण का परिणाम है। निजीकरण और व्यावसायीकरण ने शिक्षा को आम आदमी की पहुंच से बाहर कर दिया है जो गंभीर चिंता का विषय है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)