डॉ योगेन्द्र
राँची के आकाश में सुबह से बादल हैं। ठंड तो है ही। यहाँ ठंड घटती बढ़ती रहती है। उसके अनुसार लोग कपड़े बदलते रहते हैं। लोग अस्थिपंजर के बने हैं। मौसम का असर होता है। सो, वे तरह-तरह का रूप धारण करते हैं। प्रेमचंद ने अपनी प्रसिद्ध कहानी- पूस की रात- में हल्कू अपने खेत में ठंड से काँपते हुए दिखाया है। वह अपने कुत्ते जबरा के साथ सोने की कोशिश करता है कि दोनों की देह की गर्मी एक दूसरे को राहत पहुँचाये। मगर ठंड तो ठंड थी। दोनों को कँपाती रही। देश में आज भी करोड़ों हल्कू हैं जो ठंड से हर वर्ष काँपते हैं। शासन- सत्ता उसके बारे में क्यों सोचे? उसे बहुत से काम हैं। उसके पास एक और महत्वपूर्ण काम निकल आया है। वह है ढोंग और पाखंड को हवा देना। अख़बार में आज पाँच कॉलम की खबर है जिसका शीर्षक है-‘भगवान को पहनाये जा रहे गर्म कपड़े, भोग में आयुर्वेदिक दवा भी।’ पंडितों को पूरा विश्वास है कि जगन्नाथ मंदिर, श्रीलक्ष्मी वेंकेटेश्वर मंदिर, श्रीवीर हनुमान मंदिर, तपोवन मंदिर समेत अनेक मंदिरों में स्थित देवता ठंड से काँप रहे हैं, इसलिए उनके लिए शॉल और गर्म कपड़े का इंतज़ाम किया गया है। भोग में भी गर्म दूध और घी परोसा जा रहा है। उन्हें आयुर्वेदिक दवाएँ भी दी जा रही हैं।
दूसरी खबर यह है कि आरएसएस के चीफ़ को अब याद आया है कि हिन्दुओं और मुसलमानों को नहीं लड़ना चाहिए। शांतिपूर्वक और सौहार्द के साथ रहना चाहिए। उन्होंने कहा है कि रोज़ नये मुद्दे उठाकर दुश्मनी फैलाना ग़लत है। 3 जून 2022 को भी उन्होंने कहा था -“इतिहास में हुई ग़लतियों को भुलाकर हिन्दुओं को हर मस्जिद में शिवलिंग नहीं ढूँढना चाहिए।” उन्होंने सही कहा है। हमें मंदिर- मस्जिद को नये शगूफों का केंद्र नहीं बनाना चाहिए और देश को अशांत नहीं करना चाहिए। बात जब सही अवसर पर कही जाय तो उसका असर होता है। जिस वक़्त हवा में अजमेर शरीफ़ से लेकर घर मुहल्लों के मस्जिदों में शिवलिंग ढूँढे जा रहे थे तो वे चुप रहे। ऐसा तो नहीं है कि खबरें उन तक नहीं पहुँचती होंगी। जब सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया तो वे मंच पर आये। आरएसएस बिना निबंधन का एक स्वयंसेवी संगठन है। इसके मातहत बहुत से संगठन हैं। ज़ाहिर है कि उसका नेटवर्क बड़ा है। ऐसे धार्मिक उछल-कूद में उनके कार्यकर्ता भी रहते हैं। उन्हें समय पर अपने कार्यकर्ताओं को ताकीद करना चाहिए। उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि बहुत से मंदिर बौद्ध विहार तोड़ कर बनाये गये हैं। बोधगया में अभी भी बुद्ध विहार में हिन्दुओं के देवता की मूर्तियों घुसा दी गयी हैं। धर्म वही बड़ा है जो मनुष्य की रक्षा करे। तलवार उठाकर गर्दन काटने वाला धर्म किसी काम का नहीं होता। चाहे वह कोई भी धर्म हो। जो तलवार दूसरे की गर्दन पर चलती है, वह एक दिन तलवार चलाने वालों की गर्दन पर भी चलती है। बाज को तो आप जानते हैं। फफिन को शायद नहीं जानते होंगे। मैं भी नहीं जानता था। अख़बार से जाना कि फफिन एक समुद्री पक्षी है। यह स्कॉटलैंड के शिएंट द्वीप समूह में रहता है। यह एक साथ कई शिकार कर सकता है। हमें न बाज बनना है, न फफिन। मनुष्य की ज़िंदगी दोनों से परे है। वह ज़िंदगी हीं होती है जो बाज और फफिन को जीत लेती है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)