समाज में व्याप्त विकृतियां

सर्वत्र दिशाहीनता की स्थिति

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ब्रह्मानंद ठाकुर
कल एक पत्रकार मित्र से बात हो रही थी। युवा हैं,आदर्शवादी हैं और इंसानियत से ओतप्रोत भी। समाज में व्याप्त विकृतियां उन्हें विचलित करती है। यह गुण उनको विरासत में मिला है। लेकिन इसे बचाए रखने में पग-पग पर कठिनाई होने की बात स्वीकार करने से उन्हें परहेज नहीं है। बढ़ते भ्रष्टाचार, चारित्रिक और नैतिक पतन, गिरते मानवीय मूल्यों से वे आहत हैं। आहत मैं भी हूं, लेकिन इस उम्र में इसका प्रतिरोध कर पाने की स्थिति में नहीं हूं। ऐसे में लिख कर कभी कभार अपनी पीड़ा का इजहार कर देता हूं।
देख रहा हूं, ऐसे लोग आज समाज के कर्णधार बने हुए हैं, जिनका खुद का दामन नापाक है। वैसे पाक और नापाक की परिभाषा भी अब बदल चुकी है। भ्रष्टाचारी नेता हों या अभिनेता, अपने-अपने कद के अनुरूप सम्मानित किए जा रहे हैं, सदाचारी प्रताड़ित और बहिष्कृत हो रहे हैं। समाज में कभी यह धारणा थी कि मनुष्यता की सही पहचान उसके आत्मसम्मान और मर्यादा बोध में निहित है, पद-प्रतिष्ठा, दौलत और शोहरत में नहीं। वह धारणा अब विलुप्त हो चुकी है। पद-प्रतिष्ठा, दौलत और शोहरत ही मनुष्य और मनुष्यता की पहचान बन गई है। महिलाओं पर यौन अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। लूट, हत्या, बलात्कार की घटनाएं आम हो चुकी है। युवा पीढ़ी की नैतिक रीढ़ और मूल्य नष्ट किए जा रहे हैं। यह संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था की साजिश है। इसे समझने के लिए कोई तैयार नहीं। पूंजीवादी राजसत्ता ने युवापीढी की नैतिक रीढ़ को नष्ट कर विकृत उपभोक्तावादी संस्कृति के मकर जाल में बुरी तरह उलझा दिया है। उससे निकलना आसान नहीं है‌। नई पीढ़ी को बर्बाद करने का सारा सरंजाम इसके आसपास बिखरे पड़े हैं। टीवी, सीरियल, फिल्म, इंटरनेट, शिक्षा व्यवस्था आदि के माध्यम से अश्लीलता और यौनता फैलाई जा रही है। सर्वत्र दिशाहीनता की स्थिति है। कहीं से इसके विरोध में आवाज नहीं उठ रही‌। विज्ञान और वैज्ञानिक संसाधन मनुष्यता के विकास के लिए है, लेकिन आज इसका उपयोग नीति-नैतिकता, विवेक और मानवीय मूल्यबोध की रक्षा और विकास के लिए नहीं, उसे बर्बाद करने के लिए किया जा रहा है। कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित मीडिया युवा पीढ़ी की नैतिक रीढ़ को नष्ट करने के लिए तरह-तरह का षड्यंत्र कर रही है। परिणाम सामने है। छात्र- युवा वर्ग के एक बड़े तबके ने कैरियरवाद, आत्मकेंद्रीयता, अवसरवाद और धनोपार्जन को अपने जीवन का चरम उद्देश्य मान लिया है। उसके दिल से समाज के प्रति जिम्मेदारी और समर्पण का भाव गायब है। यह स्थिति अकस्मात पैदा नहीं हुई है। यह उस सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था का परिणाम है जिसकी स्थापना आजादी के बाद हमारे देश में हुई। यही संकटग्रस्त पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अपने वर्ग हित में देश की युवा पीढ़ी को उसके अतीत के उन्नत आदर्शों से अलग-थलग कर रही है। इसलिए आज जरूरत है नये सामाजिक मूल्यबोध, नूतन आदर्श, सिद्धांत और नवीन वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित नये समाज के निर्माण की। इसके लिए वर्तमान मरनासन्न पूंजीवादी व्यवस्था को जड़मूल से नष्ट तो करना ही होगा।

 

Distortions prevailing in society
ब्रह्मानंद ठाकुर
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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