डॉ योगेन्द्र
गजब घटना घट गयी। चमत्कार हो गया। सदियों से धृतराष्ट्र को आँखें नहीं थीं। अंधापन उसके जीवन का अभिशाप था। लेकिन कलियुग में उसकी आँखों का ऑपरेशन हो गया और वह चंगा हो गया। दुनिया उसे झकास नजर आने लगी। वैसे जब उसके पिता विचित्रवीर्य असमय मर गये तो उसकी दादी सत्यवती चिंतित हो गयी कि हस्तिनापुर की चमकती राजगद्दी का क्या होगा? उसने भीष्म से कहा कि तुम अंबिका के साथ सोओ और बच्चे पैदा करो। भीष्म तो भीषण प्रतिज्ञा के कब्जे में था। लेकिन मनुष्य था। मन थोड़ा हिला डुला भी, पर उसने मन को कड़ा किया। उसे अपने पिता की दुर्गति याद आयी। वासना के चक्कर में उसकी मृत्यु घिना-घिना कर हुई थी। अंतिम समय में वे कैसे कुहरते थे? उनका पाप उनके सिर पर चढ़ कर बोलता था। उन्होंने उल्टी सीधी शर्तें मान कर सत्यवती को तो घर ले आये। थोड़ी मौज मस्ती भी की। दो बेटा भी पैदा किया – चित्रांगद और विचित्रवीर्य। पर एक तो भयानक अय्याशी में डुबा रहा। बचपन से ही अपनी दासियों के साथ सोने की आदत लग गई। नतीजा हुआ कि जब बच्चे पैदा करने का अवसर आया तो सीधा स्वर्ग कूच कर गया। दूसरी संतान विचित्रवीर्य क्षय रोग से ग्रसित था। सो असमय भगवान के प्यारे हो गये।
अब मामला यह था कि बिना उत्तराधिकारी के हस्तिनापुर का क्या होगा। भीष्म तो साफ़ डिनाय कर दिया। सत्यवती ने फिर कहा कि डिनाय करने से काम नहीं चलेगा। या तो तुम बच्चे पैदा करो या व्यास को पकड़ कर लाओ। वह बच्चा पैदा करेगा। तप तपस्या से क्या होगा? उसे कहना कि तुम्हारी माँ ने तुम्हें राजभवन बुलाया है। भीष्म यह जान कर थोड़े आहत हुए कि सत्यवती ने कुंवारेपन में ही व्यास को पैदा किया था। दुनिया भी कैसे कैसे खेल खेलती है! पर भीष्म तो हस्तिनापुर के रक्षकों लिए प्रतिबद्ध थे। वे व्यास को कह सुन कर हस्तिनापुर ले आये। विचित्रवीर्य की दोनों रानियाँ – अंबिका और अंबालिका व्यास के सामने प्रस्तुत हुई। अंबिका और अंबालिका में थोड़ी बहुत लज्जा शेष थी। अंबिका ने आँखें बंद कर ली और अंबालिका भय से काँपने लगी। आँखें बंद करने से जो बच्चा पैदा हुआ, वह धृतराष्ट्र था और भयग्रस्त अंबालिका से जो पैदा हुआ, वह था पांडु। अंधे धृतराष्ट्र ने पूरे सौ बच्चे पैदा किये और पुत्र मोह में न जाने कितने पाप किये। खैर यह तो बीती हुई पुरातन बात है। अब नयी बात यह है कि कलियुग में धृतराष्ट्र की आँखों का ऑपरेशन हो गया। राजगद्दी भी यों ही फालतू में मिलने का रिवाज खत्म हो गया था। राजगद्दी देने दिलवाने में जनता भी महत्वपूर्ण बन गयी थी। पहले वह ज्यादा से ज्यादा सिपाही, दरबान आदि होती थी। लेकिन क्या नयी जनता और क्या पुरानी जनता, वह थोड़े से में ही फिसल जाती है। महाभारत का धृतराष्ट्र आँख का अंधा था, पर आधुनिक धृतराष्ट्र दिमाग का शातिर था। अपनी गलती, गलती नहीं लगती थी, दूसरे में वह बहुत टांग अड़ाता था। बहुत दिनों बाद जब वह चुनाव प्रचार में निकला तो रास्ते में उसे शीशमहल दिख गया। जैसे उसका महल तो झुग्गी झोपड़ियों का बना था। वह चीखा- ‘मैं भी शीशमहल बना सकता था, लेकिन मैंने तो देशवासियों को पक्का घर देने का सपना देखा।’ जनता सुन कर आश्चर्यचकित। आधुनिक धृतराष्ट्र से कौन पूछे कि ग्यारह वर्ष में जनता के कितने घर पक्के हुए? वह तो न कभी प्रेस सम्मेलन में आता है, न मिलने का कोई अवसर देता है। हे महान जनता, फ़िलहाल आप भाषण चबाओ और नारे निगल कर पेट भरो। कलियुग में इसके अलावे क्या विकल्प है!
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)