डॉ योगेन्द्र
कल मैं यूट्यूब पर संसद की कार्रवाई देख रहा था। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव संभल की दुर्घटना पर बयान दे रहे थे तो केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह हल्ला कर रहे थे। मुझे समझ में नहीं आया कि गिरिराज सिंह हल्ला क्यों कर रहे थे? क्या वे अखिलेश यादव को बयान नहीं देने देना चाहते थे या वे उनके बयान से असहमत थे? सांसदों को इतना धैर्य नहीं है कि हम विरोधी बातों को सुनें और उनकी बारी आये तो वे बातों का खंडन मंडन करें। मैंने दो तीन बार यह भी देखा कि प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी बोल रहे हैं और गृहमंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और एकाध बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हस्तक्षेप करते दिखे। संसद में लोकतंत्र लगभग ग़ायब ही रहता है। हम ज़रूरी घटनाओं और स्थितियों पर चर्चा करने से भी घबराते हैं। चुनावी बांड, महंगाई, सांप्रदायिक घटनाएँ, बेरोज़गारी आदि पर मौन धारण कर लेते हैं। हम कॉरपोरेट जगत की लूट से किनारा कर लेते हैं। हम देश को विभाजित करने वाली स्थितियों को लंबा खींचने की कोशिश करते हैं। लोकतंत्र का मंदिर अगर संसद है तो संसद में हर तरह की बहसें होनी चाहिए और खुलकर होनी चाहिए। सत्ता पक्ष और विपक्ष को एक दूसरे की बात सुननी चाहिए।
इधर धरती पर लोकतंत्र को देखिए। आप संभल नहीं जा सकते। यहाँ तक कि प्रतिपक्ष के नेता तक नहीं। आप किसी से मिल नहीं सकते, न जुलूस निकाल सकते हैं, न धरना- प्रदर्शन कर सकते हैं। उत्तर प्रदेश और बंगाल में आप गाँव देहात में लोकतांत्रिक शांतिपूर्ण कार्रवाई नहीं कर सकते। लोकतंत्र में लोक अगर मालिक है तो मालिक की ऐसी दुर्दशा क्यों है कि उसका नौकर उसे चला ही नहीं, चरा रहा है। शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन हमारा हक है और जो इस हक़ को छीनता है, वह लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ है। चाहे वह सरकार किसी की हो। पाँच वर्ष के लिए सरकार चुनते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि जनता ने अपना हाथ काट लिया है या मुँह सी लिया है। सत्ता की ऐसी समझ हो गई है कि जीत के बाद वह कुछ भी कर सकती है। सत्ता भी संविधान के तहत ही काम करेगी और जनता भी। जनता हिंसा का सहारा नहीं लेगी और सत्ता भी अपनी पुलिस पर नियंत्रण रखेगी कि वह हिंसा न करे। उसके पास गोली है, इसका मतलब यह नहीं है कि वह जनता के सीने पर दाग दे। लोकतंत्र की पुलिस भी अजब हो चली है। वह गुंडों को तो पकड़ती नहीं, निर्दोष पर ही गोलियाँ चलाती रहती हैं। भीड़ से निबटने के लिए उसे ख़ास तरह की ट्रेनिंग देनी चाहिए। पुलिस को यह पता होना चाहिए कि जब उसे भीड़ पर गोली ही चलानी पड़े तो कमर के नीचे वाले हिस्से में गोली मारें। गोलियों में भी रबर की गोली होती है। दरअसल नेताओं को भी ट्रेनिंग की ज़रूरत है। वह लोकतांत्रिक व्यवहारों को समझते नहीं। संविधान को शायद ही नेता पढ़ा हो। वे चुनाव जीतने के लिए जो हथकंडे अपनाते हैं, उनमें लोकतांत्रिक चिड़िया कहीं रहती नहीं। नतीजा है कि हर स्तर पर लोकतंत्र मर रहा है। लोकतंत्र बहुत ज़रूरी है। इससे बेहतर शासन का तरीक़ा नहीं है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)