पूस की रात में दिल्ली की मुन्नी!

मुन्नी विद्रोही होगी हल्कू अब तेरे लिए

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Poos ki Raat
बाबा विजयेन्द्र (स्वराज खबर, समूह सम्पादक)

पूस की रात क्या, कल पुस की साँझ भी बहुत जानलेवा थी। किसी तरह खेत से मैं घर वापस आ पाया। शरीर के साथ मेरे सपने सिकुड़ते नजर आये। अरमान भी ठंडा पड़ गया। इस कंपकपी के बीच मैं अपने मन को सर्दी के साहित्य और समाजशास्त्र में उलझा दिया। इतनी सी परेशानी को मैं कितना बड़ा बनाकर देख रहा था?
करोड़ों किसान भूखे नंगे किस हाल में होंगे, यह सोच कर सिहर रहा था। इसी बीच मुंशी प्रेमचंद की मुन्नी ने हाँक दी। मैंने गाड़ी का गियर बदला। कुहासे को चीड़ते वह आवाज मेरे कानों तक पहुँचने लगी। तत्काल मेरे भीतर का हलकू हाहाकार करने लगा।
घर पहुंचकर टीवी के सामने बैठ गया। मन हलचल से भरा था। खामोश था। कौन हालचाल पूछता है आजकल घर में? बस दीवारों पर केवल प्रश्न टंगे रहते हैं। यह नहीं वह नहीं। इन विद्रुप सवालों का समाधान से कोई लेना देना नहीं होता। घर में सवाल दर सवाल होते हैं पर कोई जबाव नहीं चाहिए।
गहरी खामोशी के साथ मैं सोफा पर लदक गया। आँखें ऑनस्क्रीन हुई। कुम्भ की सुरक्षा पर खबरें चल रही थी। सारे चैनलों पर आगामी होने वाले कुम्भ की ही चर्चा थी। धर्मवीर योगीजी का महिमामंडन जारी था। कुम्भ-कथा पर भी दिमाग घूम गया। मंथन, फिर अमृत और उसको लेकर सुर असुर के बीच हुई झपटमारी?

प्रयाग राज से स्वराज कैसे आएगा?
कुम्भ की सुरक्षा वाजिब है। पर इस कुम्भ को भरने वाले किसान की सुध कौन लेगा? प्रयाग राज से स्वराज कैसे आएगा?
वैसे हलकू अब मरता क्यों नहीं है? खेत छोड़कर हलकू अब कहाँ जाएगा? पूस की रात की विद्रोही मुन्नी आज महिला नक्सली घोषित हो जाती जिस तरह से वह लगान न देने की बात करती है? मुन्नी खेती छोड़ देने की बात कहती है पर हलकू को कहाँ मजदूरी मिलेगी? विकास के बनते टापू पर हलकू के पांव क्या पहुँच पाएंगे?
मजदूरी करेगा हलकू शहर में तो फुटपाथ पर ही सोयेगा। पत्ता के बदले प्लास्टिक जलाएगा पूस की रात में। कौन आग इन्हें जलाने देगा। कोई जबड़ा भी साथ नहीं होगा। लपेटने को राख भी नसीब नहीं होगी। स्वयं राख हो जाएंगे हलकू!
हलकू की सनातन हुई उस पीड़ा का प्रतिकार आज भी जारी है। समस्या यथावत है। किसानों की पीड़ा दुगुनी नहीं हुई है। पूस की इस रात में भी उस हलकू का अनशन जारी है। क्या दल्लेवाल प्राण त्याग देंगे? सरकार व्यस्त है। मस्त है। मोदी हुकूमत आपदा प्रबंधन में लगी है?
जयंत व्यवस्था का ही प्रतीक है। यह अमृत चुराकर भागता है। वही अमृत प्रयाग राज में गिरा था। जहां-जहां वह नवनीत गिरा वहां-वहां कुम्भ शुरू हो गया। खोपड़ी में यह बात उमर रही है कि प्रयागराज से स्वराज कैसे आएगा?
बहुत सारी कहानियों को पढ़ने के बाद यह समझा जा सकता है कि असुरों के हाथ में व्यवस्था का होना अच्छी बात नहीं होती! स्थिति आज भी वैसी ही है। श्रमनों के मिहनत की लूट का नाम ही कुम्भ है। जो व्यवस्था के करीब हो गया, वही ‘चौधरी’ हो गया।
इस कुम्भ के पीछे कितने किसानों की जिंदगी स्याह हुई होंगी, कहा नहीं जा सकता। अगर यह कुम्भ खबर है तो अपनी मांगो को लेकर मर रहे किसान भी खबर है। अगर उधर फोकस नहीं है तो कुछ बात अवश्य है। विदेशी फंड, देश द्रोह, कनाडा कनेक्शन जो कह दीजिये!
आरोप जितना लगा दिया जाए पर किसानों की स्थिति तो सुधरे? जब हलकू कर्ज मुक्त हो जाएगा। खेत छोड़कर इनका भागना बंद होगा जब हलकू अपनी संतान को भी किसान बनाना चाहेगा। खेती बुनियादी सवाल का समाधान देने लग जाएगी तब समझेंगे कि किसान की स्थिति अच्छी हो गयी है। शायद तब किसी किसान को धरना देने और मरने की क्या जरुरत होगी?
खैर, पिछली सदी में हमारी सम्वेदना हलकू तक जाती थी। समाज एक संज्ञा था। समाज भीड़ नहीं था। पूस की रात के बहाने विद्रुपता के खिलाफ हम विद्रोह लिख रहे थे। त्वरा तेवर और तराने में प्रतिरोध के स्वर थे। पर यह सदी मुन्नी को घर से बाहर निकाल लाई। चकमक बाजार में मुन्नी को भी देहबोध हो चुका है। मुन्नी क्या रजिया भी फंस गई है। वह देह की पूंजी लिए बाजार में खड़ी है। मुन्नी लगातार बदनाम हो रही है। जीवन बदल गया है। संवेदना मूर्खो की शगल होकर रह गई है। हमारी चेतना खंडित हो चुकी है।
7 जनवरी 2025 की यह पूसी रात! साल की यह मेरी पहली कलम है। कलम से थोड़ा भाप निकल रहा है। पड़ने लगी है कड़ाके की सर्दी। जाड़े में बलमा प्यारा लगे जैसी झूठ बहुत ही सताने लगी है। बलमा विवश है। बलमा व्यथित है। रील वाली इन मुन्नीयों से हर मर्द परेशान है।
यह मर्ज है। मुन्नी लाइलाज बीमारी हो चुकी है। रील का ऐसा रेला है मोबाइल पर, जिसमें जाहिली संवाद और व्यवहार की बाढ़ आयी हुई है। मोबाईल के मुसाफिर रील वाली मुन्नीयों से मोहित हो रहा है। चलत मुसाफिर मोह लियो रे मोबाइल वाली मुनिया….!
घर की मुन्नी बेमतलब का सुझाव परोस कर पतियों को परेशान ही करती है। क्यों रोज खेत चले जाते हैं? खेत-उत से कुछ मिलने वाला नहीं है। हजार किलोमीटर दूर घर बार छोड़कर दिल्ली आये हो, लिख पढ़ सकते हो। यू-ट्यूबर हो जाओ। क्या रखा है इस बैगन भिंडी में? नहीं कुछ करने लायक हो तो पॉलिटिक्स में चले जाओ जहां योग्यता की कोई जरुरत नहीं होती। खैर, अपनी पीड़ा का बखान करने नहीं आया हूँ। वैसे ज़ख्म और गुप्तागों को ढक कर ही रखना चाहिए बेबजह और बेजगह नहीं उघारना चाहिए।
जबरा अब भोंकता नहीं है। कन्फ्यूजड है। जबरा नाच गान में व्यस्त है। घर-घर नल और जल की तरह अब घर-घर रील है। घर-घर कोठा है। कोठा और कोठीयां का भेद तो मिट ही गया है। बस अभी आभासी मुजरा का आंनद ले रहा हूँ। ऐसी अश्लीलता की बाढ़ है कि हमारी संस्कृति बहे जा रही है काला सागर की ओर। आये थे कोठा बंद कराने, पैसे की खनक देख स्वयं नाचने लग गए।
संस्कार ठंडा पड़ गया है। संस्कृति की लहलहाती फसल नील गायें ख़त्म कर दे रही है। इस्मत चुगतई का ‘लिहाफ’ भी बुला रहा है। लैंगिक समानता की लड़ाई लड़ते-लड़ते हम समलैंगिकता तक आ गए! रजाई औरतों की कामुकता और अधूरी इच्छाओं की छिपी दुनियां का प्रतीक है। रजाई और चूड़ियों के टूटने की आवाज़! इस्मत चुगतई की फ़िल्म ‘लिहाफ’ की चर्चा बाद में। अभी कलम के सामने धुंध छाया हुआ है। क्या लिखना और क्या नहीं लिखना।
मन ठिठुर रहा है। चारो तरफ अजीब तरह का चिल पों हो रहा है। हलकू अलग गीत गा रहा है और मुन्नी कुछ अलग।
एक लिहाफ तु हमको उधार देई दो, बदले में यूपी बिहार लेई लो। मुन्नी भी इधर गरिया रही है कि -जड़बा में लागेला बड़ी पलबा हो, भागल बा दोगलबा। मुन्नी का यह गीत पुस की रात में गर्मी पैदा कर रहा है। हलकू को जाड़े में गवनवा की जरुरत नहीं। बल्कि रजाई की ही जरुरत है जिससे पूस की रातें गुजर जाए….

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