एयर इमरजेंसी: विकास के इस चमकते खंडहर पर पुनर्विचार करे

हम भेड़ हैं या मनुष्य?

0 58

डॉ योगेन्द्र
दिल्ली में ‘एयर इमरजेंसी‘ है। इमरजेंसी पर संसद में भी चर्चा होती है। कांग्रेस पर कटाक्ष करने के लिए इस शब्द का इस्तेमाल होता है। होना भी चाहिए, इमरजेंसी कोई अच्छी चीज़ तो थी नहीं। जनता के सभी बुनियादी अधिकारों को सस्पेंड कर दिया गया था। न बोलने की आज़ादी, न प्रेस की आज़ादी, न संगठन बनाने की आज़ादी। यानी संविधान प्रदत्त सभी अधिकारों को सरकार ने छीन लिए। इस इमरजेंसी के खिलाफ लोग सड़क पर उतरे और वह ख़त्म हुई। 1974 की इमरजेंसी कांग्रेस सरकार के द्वारा लायी गयी थी। इस इमरजेंसी के खिलाफ कोर्ट भी था और लोग भी। ‘एयर इमरजेंसी’ को कोर्ट भी चाहता है, सरकार भी और शायद लोग भी। कोर्ट कहता है – 10वीं कक्षा वाले बच्चों के फेफड़े अलग हैं क्या, जो उनके स्कूल बंद नहीं किये गये? कोर्ट का कहना तो सही है कि सभी बच्चों के फेफड़े तो एक ही तरह के रहते हैं। इसलिए स्कूल बंद करने का आदेश देना तो बनता है। इसके आगे कोर्ट से यह भी पूछना चाहिए कि बच्चों के फेफड़े और बड़े-बूढ़ों के फेफड़ों में कितना अंतर है? क्या बड़े-बूढ़ों के फेफड़े पत्थर के बने हैं कि उनमें प्रदूषित हवा प्रवेश नहीं करती और उसे हानि नहीं पहुँचाती? क्या घरों को प्रदूषित हवा माफ़ कर देती है। सुनते हैं कि दिल्ली के अनेक घरों में अमीर लोगों ने एयर प्युरिफ़ायर लगाया है। सड़क पर जीवन गुज़ार रहे लोगों के लिए क्या? मुझे लगता है कि जैसे प्रकृति प्रदत्त पानी को पूँजीपति बोतलों में बंद कर बेच रहे हैं, वैसे ही पहाड़ों में वे अपना यंत्र लेकर आयें और हवाओं को क़ैद कर बड़े-बड़े शहरों में बेचें। प्रकृति ने जो कुछ दिया है, उसे बेचने का अधिकार किसी को नहीं देना चाहिए, मगर किसको कौन समझावे। सब भेड़ बने बैठे हैं। एक कुँए में गिरता है तो दूसरा उसमें गिरने के लिए तैयार है और पढ़े लिखे लोग इसे विकास कहते हैं।
आनेवाले वर्षों में भी दिल्ली में प्रदूषण पर नियंत्रण करना मुश्किल है। हम पेड़ की रक्षकों लिए जड़ में नहीं पत्तों में पानी दे रहे हैं। दिल्ली में देश के सबसे बड़े ताकतवर लोग रहते हैं। वहाँ प्रधानमंत्री हैं, बौद्धिक लोग हैं, जो बड़ी-बड़ी वैश्विक चिंताएँ करते रहते हैं, मगर दिल्ली के प्रदूषण को लेकर ज़्यादा से ज़्यादा सेमिनार कर सकते हैं या लेख लिख सकते हैं। प्रदूषण को बढ़ने से नहीं रोक सकते। दिल्ली वासियों ने यमुना को मरते देखा है। दिल्ली का मन थोड़ा बहुत सुगबुगाया होगा या शायद दुखी भी हुआ होगा, लेकिन यमुना जैसी सांस्कृतिक नदी को मरने से कोई नहीं रोक पाया। अगर कृष्ण कन्हैया इस धरा पर अवतरित हो जायें, तो वे किस कदंब के पेड़ पर बैठेंगे और बाँसुरी की टेर लगायेंगे? जो भी हो। इस युग में अगर ज्ञान का विस्फोट हुआ है तो अज्ञान भी कम विस्फोटक नहीं है। विनाश को ही विकास मान कर प्रचारित करने लगें, तो इसे अज्ञान का विस्फोट ही न कहेंगे! जिस तरह से नगरों का विकास हो रहा है, संभव है कि वह भी मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की नियति प्राप्त करेगा। वक़्त अभी भी है, वह विकास के इस चमकते खंडहर पर पुनर्विचार करे और उस थ्योरी पर भी जो आत्मघात की ओर ले जा रही है। जब हवा, पानी और धरती गंदी होने लगे, बादल फटने लगे और मनुष्य की चेतना चीखने लगे, तब हमें घमंड और गुमान में नहीं रहना चाहिए। पुनर्विचार करना पीछे लौटना नहीं होता है।

 

Delhi-Air-Emergency- development
डॉ योगेन्द्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
Leave A Reply

Your email address will not be published.