ब्रह्मानंद ठाकुर
समाज में गरीब-अमीर अनादि काल से रहे है और रहेंगे। ऐसा अक्सर लोग कहते है। इसके लिए तर्क दिया जाता है कि जब हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं है तो फिर समाज में सभी बराबर कैसे हो सकते हैं? अमीर-गरीब तो भगवान ने बनाया है। उनका यह तर्क न तो इतिहास सम्मत है और न विज्ञान सम्मत ही। यह उनकी भावनात्मक सोच है।
ईश्वर की अवधारणा तो काफी बाद में पैदा हुई, जब समाज वर्ग विभाजित हुआ। आदिम काल में मनुष्य के उपभोग हेतु ऐसी कोई सामग्री नहीं थी जिसे भविष्य के लिए संचित कर रखा जा सके। लोग मिल-जुल कर शिकार करते, फल-मूल एकत्र करते और मिलजुल कर ही उसका उपभोग करते थे। स्थाई आवास भी नहीं था। जहां, भोजन की उपलब्धता देखी, वहीं चल दिए। घुमक्कड़ी अवस्था। हां, तब एक बात अवश्य थी कि उस समय जो ताकतवर होता, वह छीन-झपट कर कुछ अधिक खा लेता था। अगले दिन के लिए कुछ भी बचाकर रखने की स्थिति तब नहीं थी।
परिवर्तन का क्रम लगातार चलता ही रहता है। इसके हजारों वर्षों बाद पशुपालन और कृषि व्यवस्था का आगमन हुआ। सबों ने आपस में मिलजुल कर, उस समय के उपलब्ध साधनों से जंगलों को काट कर, जंगली जानवरों से लड़ कर खेत बनाया। मिलजुल कर ही फसलें उगाई जाने लगीं। इस तरह स्थाई सम्पत्ति का आगमन हुआ। आज जो लोग यह कहते हैं कि यह जमीन हमारे पूर्वजों ने अर्जित किया है। यह कथन कोरा बकवास है। कृषि भूमि सामूहिक श्रम की देन है। तमाम लोगों ने मिल-जुल कर प्रकृति प्रदत्त जमीन को खेती लायक बनाया, उससे उत्पादन शुरू किया। शुरुआती समय में उत्पादन व्यवस्था ऐसी नहीं थी कि लोगों की न्यूनतम जरूरतें भी पूरी हो सके। इसलिए उत्पादित सामग्री के अधिक से अधिक उपयोग करने को लेकर लोगों मे तब झगड़े-फसाद भी खूब होते थे। आवश्यकता के अनुरूप उत्पादन न होने और उसके असमान वितरण से लोभ की पैदाइश हुई।
सामूहिक श्रम से पैदा की गई भू-सम्पदा पर कबीले के ताकतवर लोगों ने कब्जा जमा लिया। ध्यान देने की बात है कि लोभ से असमानता नहीं, असमानता से लोभ की पैदाइश हुई है। इस छीन-झपट और झगड़ा-फसाद को रोकने के लिए तब न राजसत्ता थी, न न्याय व्यवस्था। इस तरह सामूहिक श्रम से अर्जित भू-सम्पदा को कबीले के ताकतवर लोगों ने निजी सम्पत्ति घोषित कर दिया। फिर कबीले के ताकतवर लोगों ने ही बराबर के हिस्सेदारी वाले दूसरे लोगों को लाठी के बल पर अपना दास बनाया और खुद उसके प्रभु बन गये। वे उनकी मिहनत से अर्जित सम्पदा का आराम से उपभोग करते हुए मालिक बन बैठे। इसी तरह निजी सम्पत्ति का जन्म हुआ और समाज दास-प्रभु, अमीर-गरीब, शोषित- शोषक दो वर्गों में विभाजित हो गया। इसके बाद इसी निजी सम्पत्ति की रक्षा के लिए राजसत्ता की उत्पत्ति हुई। वर्ग विभाजित समाज में राजसत्ता शोषकों के हित में शोषित वर्ग के दमन का एक औजार होती है। आज यदि कोई खुद को सौ, दौ सौ, हजार, पांच हजार बीघे जमीन का मालिक कहता है, उसका इतिहास यही है। आज यही समझने की जरूरत है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)