‘बुलडोज़र कार्रवाई’ न्याय नहीं नफ़रत व कुंठा की पराकाष्ठा

सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बाद 'बुलडोज़र कार्रवाई' से राहत

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तनवीर जाफ़री
भारतीय राजनीति का स्वरूप अब बदल चुका है। अब हाथ जोड़कर विनम्रता प्रदर्शित करते नेताओं का युग शायद चला गया। कम से कम आज के दौर के नेताओं के तेवर उनके मुंह से निकलने वाले ज़हरीले शब्द बाणों, उनकी नीयत व कार्यशैली आदि को देखकर तो यही लगता है। ख़ासतौर पर गत एक दशक से जब से दक्षिणपंथी शक्तियों के हाथों में देश की सत्ता आई है तब से केंद्र व अनेक राज्य सरकारों द्वारा कई ऐसे फ़ैसले लिये गये जिनके कारण देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में भारतीय तर्ज़-ए-सियासत की ख़ूब आलोचना हुई। भारतीय जनता पार्टी शासित विभिन्न राज्य सरकारों का ऐसा ही एक मनमाना व अमानवीय निर्णय था ‘बुलडोज़र न्याय’। हालांकि देश की विभिन्न अदालतों द्वारा पहले भी इस विषय पर संज्ञान लिया जा चुका है। परन्तु पिछले दिनों देश के सर्वोच्च न्यायलय ने इस सम्बन्ध में नये व सख़्त दिशा-निर्देश जारी किये और कहा कि उसका यह आदेश हर राज्य में भेजा जाए और सारे अधिकारियों को इसके बारे में बताया जाए।
सर्वोच्च न्यायालय की जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन की दो जजों की पीठ ने कहा है कि किसी व्यक्ति के घर या संपत्ति को केवल इसलिए तोड़ना कि वह अपराधी है या उन पर अपराध के आरोप हैं, क़ानून के ख़िलाफ़ है। न्यायालय ने कहा कि घर या कोई जायदाद तोड़ने से पहले कम से कम 15 दिन का नोटिस देना होगा। अगर किसी राज्य के क़ानून में इससे लंबे नोटिस का प्रावधान हो तो उसका पालन करना होगा। यह नोटिस रजिस्टर्ड पोस्ट से देना होगा। इसके साथ ही कथित ग़ैर क़ानूनी ढांचे पर भी इस नोटिस को चिपकाना होगा। नोटिस पर पहले की तारीख़ न दी जाए। इसके लिए नोटिस की एक कॉपी कलेक्टर/ ज़िला मजिस्ट्रेट को भी ईमेल पर भेजनी होगी। सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश में कहा गया है कि नोटिस में ये भी लिखना होगा कि कौन से क़ानून का उल्लंघन हुआ है, इस मामले में सुनवाई कब होगी। और जब सुनवाई हो तो उसका पूरा विवरण भी रिकॉर्ड करना होगा। न्यायालय के दिशा-निर्देश में यह भी कहा गया है कि सुनवाई करने के बाद अधिकारियों को अपने आदेश में वजह भी बतानी होगी। इसमें ये भी देखना होगा कि किसी संपत्ति का एक हिस्सा ग़ैर क़ानूनी है या पूरी संपत्ति ही ग़ैर क़ानूनी है। न्यायालय के अनुसार यदि तोड़-फोड़ की जगह, जुर्माना या और कोई दंड दिया जा सकता है तो वह दिया जाएगा। और यदि क़ानून में संपत्ति तोड़ने या गिराने के आदेश के ख़िलाफ़ कोर्ट में अपील करने का प्रावधान है तो उसका पालन किया जाना चाहिए। दिशा-निर्देश के मुताबिक़ अगर ऐसा प्रावधान नहीं भी है, तो आदेश आने के बाद संपत्ति के मालिक/मालकिन को 15 दिन का समय मिलेगा ताकि वे स्वयं ही ग़ैर क़ानूनी ढाँचे को सही कर लें। यदि ऐसा नहीं हो, तब ही इसे तोड़ने की कार्रवाई की जा सकती है। ‘बुलडोज़र न्याय’ को लेकर आये सर्वोच्च न्यायालय के इन राहत भरे निर्देशों के बाद अब यह माना जा रहा है कि इस महत्वपूर्ण फ़ैसले से बुलडोज़र से की जा रही वि‍ध्‍वंस की ग़ैर-क़ानूनी कार्रवाइयों पर अब रोक लगेगी।
ग़ौरतलब है कि उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, असम, हरियाणा जैसे अनेक भाजपा शासित राज्यों में गत एक दशक के दौरान सैकड़ों घरों व व्यवसायिक प्रतिष्ठानों को बुलडोज़र न्याय के नाम पर ज़मींदोज़ किया जा चुका है। सरकारें व प्रशासन ख़ुद ही न्यायलय की भूमिका अदा करता रहा है। किसी के मकान को इसलिये ध्वस्त कर दिया गया कि वह किसी आरोपी का मकान है। तो किसी मकान या भवन को इसलिये गिरा दिया गया कि वह अनाधिकृत निर्माण है, उसके पास नक़्शा व निर्माण की अनुमति नहीं है, आदि। दरअसल इस तरह की कार्रवाई से पहले मौजूदा सत्ताधीश के तेवर व उनके शब्दों पर यदि ग़ौर करें तो स्वयं ही साफ़ हो जाता है कि सरकार व प्रशासन द्वारा बुलडोज़र कार्रवाई कोई न्याय की मिसाल क़ायम करने के लिये नहीं की जाती थी। बल्कि इसके पीछे साम्प्रदायिक व जातिवादी कुंठा काम कर रही थी। यही वजह है कि पूरे देश में अब तक जितनी भी बुलडोज़र कार्रवाइयां हुई हैं उनमें सबसे अधिक भवनों का ध्वस्तीकरण एक ही समुदाय के लोगों का ही हुआ है। हद तो यह है कि मध्य प्रदेश में एक घटना तो ऐसी भी हुई कि एक आरोपी किसी किराये के मकान में रहता था। परन्तु इस कुंठाग्रस्त सरकार व प्रशासन ने नफ़रत की आग में जलते हुये उस मकान को भी ध्वस्त कर दिया।
जहाँ तक अवैध निर्माण बताकर किसी भवन को गिराने का विषय है तो इस सम्बन्ध में समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव द्वारा उत्तर प्रदेश विधान सभा में उठाये गये इस सवाल की भी अनदेखी नहीं की जा सकती जिसमें वे कई बार पूछ चुके हैं कि क्या उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री निवास का नक़्शा पारित है? यदि है तो कहाँ है, किसके पास है,किसने देखा है? अखिलेश के कहने का मतलब साफ़ है कि जिस भवन में बैठकर लोगों के भवन अवैध बताकर गिरवाये जा रहे हैं वही भवन अवैध रूप से निर्मित है। परन्तु दरअसल बुलडोज़र न्याय के पीछे मक़सद न्याय का हरगिज़ नहीं बल्कि यह कार्रवाई सत्ताधीशों के मुंह से समय समय पर निकलने वाले उनके शब्द बाणों को ही अमल में लाने का एक तरीक़ा है। अन्यथा आज तक इतिहास में किसी मुख्यमंत्री ने ‘हम मिट्टी में मिला देंगे, ठोक देंगे, गर्मी उतार देंगे, बक्कल उतार देंगे, बंटेंगे तो कटेंगे जैसे निम्नस्तरीय शब्दों का प्रयोग नहीं किया।
अब जबकि अदालत स्वयं यह कह चुकी है कि- किसी भी सभ्य समाज में बुलडोज़र के ज़रिए इंसाफ़ नहीं होना चाहिए, ऐसे में सत्ताधीशों को भी सोचना पड़ेगा कि वे भी स्वयं को एक सभ्य समाज के सभ्य नेता के रूप में पेश करें। धर्म जाति के अनुसार या इसके मद्देनज़र पक्षपात पूर्ण या विद्वेषपूर्ण फ़ैसले लेना निष्चित रूप से किसी सभ्य समाज के सभ्य नेता की पहचान हरगिज़ नहीं। सर्वोच्च न्यायायलय के फ़ैसले से एक बार फिर स्पष्ट हो गया है कि ‘बुलडोज़र कार्रवाई’ न्याय के लिये नहीं बल्कि यह नफ़रत व कुंठा की पराकाष्ठा है।

 

Bulldozer-action-not-justice
तनवीर जाफ़री
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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