बदज़ुबान नेताओं का करें बहिष्कार!

प्रहलाद पटेल द्वारा बदजुबानी

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तनवीर जाफ़री
भारत को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में जाना जाता है। लोकतंत्र एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें लोग अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को वोट देकर एक ऐसी सरकार चुनते हैं जिस में सभी को समान अधिकार होते हैं। लोकतंत्र समानता, भागीदारी और मौलिक अधिकारों के सिद्धांतों पर आधारित होता है। संक्षेप में एक लोकतान्त्रिक सरकार जनता की सरकार होती है जो जनता द्वारा, जनता के लिये चुनी जाती है। परन्तु प्रायः यही देखा गया है कि जनता की सेवा के नाम पर चुनावी पोस्टर, बैनर्स व कटआउट में हाथ जोड़े हुये वोट मांगते दिखाई देता नेता चुनाव जीतने के बाद जनता का प्रतिनिधि नहीं बल्कि जनता का ‘बॉस’ बना नजर आता है। सरकारी सुरक्षा, स्वागत, फूल-माला, जयजयकार, भाषणबाज़ी, अपने परिजनों व चेलों को फ़ायदा पहुँचाना, जमकर लूट खसोट करना, दबंगई व चौधर दिखाना मंत्री बनने की जुगत भिड़ाना, यदि मंत्री हैं तो मुख्यमंत्री पद के लिये लालायित रहना उज्जवल राजनैतिक भविष्य की ख़ातिर दल बदल की संभावनाओं को तलाशना आदि इसी तरह की ‘समाजसेवा’ में माननीय के 5 वर्ष बीत जाते हैं। और जनता 5 वर्षों बाद जब स्वयं को ठगा महसूस करती है तो ज़्यादा से ज़्यादा उसकी जगह किसी दूसरे का चुनाव कर लेती है। और वह भी अपने पूर्ववर्ती के नक्शे कदम पर चलने लगता है।
माननीयों द्वारा जनता की जरूरतों से मुंह मोड़ने और सारा ध्यान ‘अपनी जरूरतों’ को पूरा करने में लगाने का ही नतीजा है देश में बढ़ती बेरोजगारी, मंहगाई, विकास बाधित होना, बिजली पानी सड़क स्वास्थ व शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतें समुचित तौर से आम जनता तक न पहुँच पाना और अराजकता व क़ानून व्यवस्था जैसी समस्याओं का लगातार बढ़ते जाना। और जब यही स्थिति अनियंत्रित होने लगती है उस समय यही शातिर नेता जनता से वोट झटकने के लिये तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं। समाज को धर्म व जातियों के आधार पर विभाजित करते हैं। क्षेत्र व भाषा जैसे भावनात्मक मुद्दे उछाल कर सस्ती लोकप्रियता अर्जित करते हैं,मंदिर मस्जिद जैसे विवादों को पहले खड़ा करते हैं फिर इसे हवा देते हैं। वैज्ञानिक युग में अवैज्ञानिक तर्क देकर लोगों का ध्यान भटकते हैं। और इसी ‘शातिर सियासत’ का ही एक पहलू यह भी है कि नेताओं द्वारा मतदाताओं को आकर्षित करने के लिये तरह तरह की मुफ़्त योजनायें लागू की जाती हैं। जो सरकारें या पार्टियां इन योजनाओं को स्वयं चलाती हैं वे इन योजनाओं को बेहद जरूरी व जनहितकारी बताती हैं जबकि अन्य दलों के नेताओं को ऐसी योजनायें ‘मुफ़्त की रेवड़ी ‘नजर आती हैं। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आम आदमी पार्टी कांग्रेस पार्टी द्वारा चलाई जा रही ऐसी योजनाओं को ‘मुफ़्त रेवड़ी कल्चर ‘बता चुके हैं और इससे बचने की सलाह भी दे चुके हैं।
परन्तु ऐसी योजनाएं जब केंद्र सरकार द्वारा या मध्यप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, छत्तीसगढ़ अथवा अन्य किसी भाजपा शासित राज्य द्वारा लागू की जाती है तो वह रेवड़ी न होकर ‘जरुरत’ बन जाती है। इतनी बड़ी ज़रुरत कि मोदी सरकार को अपनी इसी ‘महान उपलब्धि’ पर अपनी पीठ थपथपानी पड़ती है कि वह ’80 करोड़ देशवासियों को मुफ़्त राशन बाँट रही है’। इसी वर्ग को वह मतदाताओं की ‘लाभार्थी श्रेणी ‘ भी समझती है। यदि इस तर्क को मान लिया जाये तो यही ‘मुफ़्त राशन ग्रहण’ करने वाला वर्ग उन सत्ताधीशों को उस मुक़ाम पर पहुंचाता है जिसके लिये वे तरह तरह के छलकपट, प्रपंच, झूठ फ़रेब, ध्रुवीकरण आदि सभी हथकण्डों का सहारा लेते रहते हैं। इतना ही नहीं इन्हीं ‘मुफ्त खोर’ मतदाताओं की कृपा से शीर्ष पदों पर पहुंचे ऐसे नेताओं में अहंकार भी इस क़द्र भर जाता है कि जिस जनता का वोट लेते समय यह अवसरवादी व स्वार्थी नेता इन्हें ‘जनता जनार्दन’ यानी जनता के रूप में ईश्वर कहकर सम्बोधित करते हैं इन्हीं नेताओं द्वारा इसी जनता को ‘भिखारी’ कहने में भी इन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती। जबकि स्वयं प्रधानमंत्री मोदी हर भारतवासी को ‘ईश्वर का अंश’ बता चुके हैं। परन्तु ईश्वर रुपी जनता जनार्दन का ऐसा ही अपमान पिछले दिनों पूर्व केंद्रीय मंत्री व वर्तमान में मध्य प्रदेश के पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री प्रहलाद पटेल द्वारा करते सुना गया। उन्होंने एक सभा में कहा कि अब तो सरकार से भीख मांगने की आदत लोगों को पड़ गई है। नेता आते हैं तो उनको एक टोकरी काग़ज़ मिलते हैं। मंच पर माला पहनाएंगे और पत्र पकड़ा देंगे… यह अच्छी आदत नहीं है। लेने के बजाय देने की मानसिकता बनाइए। भिखारियों की फ़ौज इकट्ठा करने से यह समाज मजबूत नहीं होगा। यह समाज को कमजोर करना है।
‘भिखारी’ शब्द के सन्दर्भ में यहाँ यह वर्णित करना भी ज़रूरी है कि हमारे देश के ‘यशस्वी प्रधानमंत्री’ स्वयं अपने कई साक्षात्कार में बता चुके हैं कि उन्होंने 35 /40 वर्षों तक भीख मांगकर अपना जीवन गुज़ारा है। जिस भीख की बात मोदी जी करते हैं उस भीख का अर्थ तो है कि खुद बिना मेहनत किये दूसरों की कमाई खाना। परन्तु यदि आप जनता के टैक्स के पैसों से जनता के लाभ के लिये कोई योजनाएं लाते हैं तो वह भीख कैसे हो गयी ? और यदि यह भीख है तो जनता के इन्हीं पैसों से सत्ताधीशों व निर्वाचित सदस्यों का ऐश करना, इन्हीं पैसों से अपनी सुरक्षा पर ख़र्च करना,तमाम तरह की सब्सिडी लेना निर्वाचित होते ही फर्श से अर्श पर पहुँच जाना, कर्ज मुक्त हो जाना, रातोंरात धन पति बन जाना यह सब क्या है ? एक और बात, हमारे देश में एक विशेष समुदाय बल्कि ‘अति विशेष व सम्मानित’ समुदाय ऐसा भी है जो बड़े गर्व से यह कहता है कि भिक्षा माँगना हमारे संस्कारों में शामिल है। इसके अलावा स्वयं को पुण्यार्थी समझने वाले दानदाताओं ने ही पूरे भारत में भिखारियों की लंबी फ़ौज बना दी है। हमारे धर्म प्रधान देश का शायद ही कोई ऐसा धर्म स्थान हो जहां भिखारी डेरा न जमाये रहते हों।
परन्तु यदि जनता अपने क्षेत्र की समस्याओं से संबंधित मांगपत्र अपने निर्वाचित प्रतिनिधि या राज्य के मंत्री को सौंपती है तो यह तो उसका अधिकार है? अपने या प्रदेश के ‘जनसेवक’ से अपनी समस्याएं सांझी नहीं करेगी तो किस से करेगी? आपको विधायक मंत्री बनाया किस लिये गया है? आप आख़िर हैं किस मर्ज की दवा? क्या जनता के टैक्स के पैसों पर मुफ़्तख़ोरी करने का अधिकार केवल ऐसे माननीयों का ही है जो जनता को वोट मांगते समय ‘भगवान’ और मंत्री बनने के बाद ‘भिखारी’ बताने लगे? जनता का अपमान करने वाले ऐसे बदज़ुबान, खुदगर्ज, अहंकारी व सत्ताभोगी नेताओं से न केवल सचेत रहने बल्कि इनका बहिष्कार करने की भी सख़्त ज़रुरत है।

Boycott foul-mouthed leaders
तनवीर जाफ़री

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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