पुजारियों के काम नेता न करे

धर्म की मांद में घुस कर नेता पंडित बने फिर रहे हैं

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डॉ योगेन्द्र
भागलपुर में कई दिनों से धूप का दरेस नहीं है। कभी-कभी कुछ देर के लिए मिरमिरयाई- सी धूप निकलती है जिसमें न ताप होता है, न तेज होता है। वृक्ष भी ठिठुरे हुए हैं। सड़कों पर धूल और कुहरा एक साथ मिल जाता है। मजा यह है कि मैदान में खंजन की चंचलता मोहित करती है। पक्षी को जाड़े में कोई और प्रोटेक्शन तो होता नहीं, तब भी वे ठंड से न काँपते हैं, न ठिठुरते हैं। कौए, पहाड़ी मैना, मैना और कोयलिया मैदान में मौजूद थे। टहलने वाले तो कम ही लोग थे। ठंड में वे भी घरों में दुबक गए हैं। बीमारी होने या उससे बचने के लिए लोग टहलने आते हैं। ठंड तो एक और बीमारी की तरह ही है। बूढ़ों पर कब आक्रमण कर दे, कोई ठिकाना नहीं। इसलिए वे ठंड से परहेज करते हैं। ठंड से परहेज जरूर करनी चाहिए, पर इससे ज्यादा जरूरी है कि हम जीवन को ढोंग, ढकोसले और पाखंड से मुक्त करें। ये हमें ही नहीं मारते, बल्कि राष्ट्र की तेजस्विता को नष्ट करते हैं। रामकृष्ण को गुजरे हुए डेढ़ सौ वर्ष हो रहे हैं। 1886 में उनका देहांत हुआ। वे पढ़े लिखे नहीं थे। काली के अनन्य भक्त थे। चलते फिरते, भक्ति गान सुनते, वे समाधिस्थ हो जाते थे। वे सभी धर्मों के पास गए। उन्होंने नमाज पढ़ी और गिरिजाघर भी गये। अलग-अलग धर्मों से गुजरने के उन्होंने कहा कि सभी धर्म एक ही जगह ले जाते हैं। रास्ते अलग हैं, लेकिन मंजिल एक है। यह अनुभव उन्हें महान बनाता है और आज भी जनता के ह्रदय में विराजते हैं। स्वामी विवेकानंद उनके ही महान शिष्य हुए।
आप धार्मिक हों और आध्यात्मिकता में डूबे रहें, किसी को कोई परेशानी नहीं है। बल्कि अच्छा ही लगेगा कि कोई आध्यात्म में रमे हुए हैं, लेकिन आजकल के तथाकथित साधु धर्म से वास्ता कम ही रखते हैं। वे अमृत नहीं बोते, विष बोते हैं। एक तरफ कण-कण में बसने वाले भगवान को घर देने का दावा करते हैं और दूसरी तरफ धर्मों के बीच नफरत बोते हैं। नफरत बोने का बाकायदा एक अभियान चलाया जा रहा है। इस अभियान में सत्ता में बैठे लोग सक्रिय हैं। उन्हें सत्ता इसलिए सौंपी गई थी कि कम से कम नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया करेंगे, मगर वे पूँजीपतियों को और पूंजी देने और जनता को अंधविश्वासी बनाने में लगे हैं। नेताओं को वोट इसलिए नहीं दिया जाता है कि वे चंदन टीका लगाकर मंदिरों के पुरोहित बनें। चंदन टीका लगाकर पुजारी बनने का काम धर्माचार्यों का है, न कि नेताओं का। पिछले कुछ वर्षों से धर्म की मांद में घुस कर नेता पंडित बने फिर रहे हैं और जनता को बेवकूफ बना रहे हैं। ज्यादातर नेताओं के बेटे- बेटियां विदेशों में पढ़ रहे हैं और गरीबों के बच्चों के हाथों में धर्म का डंडा थमा दिया है। यहाँ वे राजपाट का मजा लूट रहे हैं और उनके बच्चे अच्छी-अच्छी नौकरियों में जा रहे हैं। इनके दोनों हाथों में लड्डू है और जनता के हाथों में बेरोजगारी, महंगाई, अशिक्षा, अंधविश्वास और भुखमरी है। हम एक ऐसा रास्ता नहीं ढूँढ रहे जिसमें सभी को शिक्षा और सभी को काम हो। वक्त के साथ लोगों को सँभलना चाहिए। आँख बंद कर चलते रहने से तो खाई में गिरने के अलावे कोई विकल्प नहीं है।

becoming priest of leaders
डॉ योगेन्द्र

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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